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*-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
प्रश्न- ऐसे शुद्धात्मा, सिद्ध स्वरूप की अनुभूति कैसे होती है ? हमारे देखने में आता नहीं है, हमारी दृष्टि में तो यह भेद विकल्प के भाव आते हैं ?
समाधान
जितने भी यह भेद विकल्प बद्धस्पृष्टत्वादि भाव हैं, यह हमेशा रहने वाले नहीं हैं, सब बदल जाते हैं इसलिये अभूतार्थ हैं। कर्म का संबंध व रागादि का संबंध कायम रहने वाली वस्तु नहीं है, यह सब असत्यार्थ अभूतार्थ है। ऐसा जानकर, दृढ श्रद्धान से मानकर जो अपना त्रिकाली ध्रुव स्वभाव शाश्वत, अविनाशी शुद्धात्मा सिद्ध स्वरूप है। जैसा सम्यक्दर्शन की अनुभूति में आया तथा सम्यक्ज्ञान द्वारा जिसे परोक्षपने जाना है। उसमें रमने जमने से ही शुद्धात्मा की अनुभूति होती है जो अतीन्द्रिय, अवक्तव्य, कल्पनातीत है, ऐसी अनुभूति ही मुक्तिमार्ग है, इसी से पूर्वबद्ध कर्म क्षय होते हैं। आनंद परमानंदमयी परमात्म पद प्रगट होता है।
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३२. परिनइ भाव, ३३. पूरंति भाव परिवड़ परिनय सुद्धं, परिवाए सुद्ध ममल परिनामं । पूरंति कम्म षिपनं, पूरयंतो तिविहि कम्म षिपनं च ।। ५१३ ॥ अन्वयार्थ - (परिनइ परिनय सुद्धं ) शुद्ध आत्मा की परिणति में परिणमन करना चाहते हो (परिनाए सुद्ध ममल परिनामं) तो जो शुद्ध ममल परम पारिणामिक भाव है उसमें परिणमो (पूरंति कम्म षिपनं) निज स्वभाव में लीन होकर पूरे के पूरे कर्म क्षय करना चाहते हो ( पूरयंतो तिविहि कम्म षिपनं च) तो जो परिपूर्ण शुद्ध परम पारिणामिक भाव है उसमें लीन रहो तो तीनों प्रकार के कर्म क्षय हो जाते हैं।
विशेषार्थ ३२. परिनइ भाव (परिणमन के भाव ) शुद्ध आत्मा की परिणति में परिणमन करने के भाव हैं तो जो शुद्ध ममल परम पारिणामिक भाव है उसमें परिणमो ।
३३. पूरति भाव (परिपूर्ण होने के भाव ) निज स्वभाव में लीन होकर पूरे के पूरे कर्म क्षय करना चाहते हो तो जो परिपूर्ण शुद्ध परम पारिणामिक भाव है उसमें लीन रहो तो तीनों प्रकार के कर्म क्षय हो जाते हैं। शुद्धोपयोग ही मोक्षमार्ग है, इसी की पूर्णता जब होती है तब द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म से छूटकर यह आत्मा परमात्मा हो जाता है।
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गाथा ५१३, ५१४ ***** भगवान आत्मा में अन्य साधनों के बिना स्वयं से ही निर्मल पर्याय रूप परिणमित होने की शक्ति है । द्रव्य स्वयं परिणमित होकर समस्त गुणों का कार्य करता है क्योंकि साधक की दृष्टि त्रैकालिक शक्तिमान ऐसे द्रव्य पर गई है, उस द्रव्य स्वभाव के आश्रय से ही निर्मल परिणाम होता है। उस निर्मल परिणाम का ही साधन होना द्रव्य का स्वभाव है।
साधकदशा के समय निमित्त रूप से बाह्य वस्तुएं हों तो भले हों, भूमिकानुसार राग हो तो भले हो परंतु साधक धर्मात्मा इन किसी को अपने साधकत्व के साधन रूप से स्वीकार नहीं करते। साधक को तो अपना त्रिकाली ध्रुव स्वभाव परम पारिणामिक भाव ही स्वीकार है। उस अखंड साधन में से ही मोक्षमार्ग की और मोक्ष की निर्मल पर्यायों का प्रवाह चला आता है। मैं अपनी ज्ञानादि अनंत शक्तियों से परिपूर्ण हूँ और पर का एक अंश भी मुझमें नहीं है, ऐसा भेदज्ञान करके अपने अनंत शक्ति सम्पन्न परिपूर्ण शुद्धात्मा की पकड़ श्रद्धान, ज्ञान होने से बाह्य पदार्थों की और पर भावों की पकड़ छूट जाती है इसलिये श्रद्धान ज्ञान की अपेक्षा से वहां सर्व परिग्रह का त्याग हो जाता है, ऐसा ज्ञान होने से अनंत संसार छूट जाता है तथा इस स्थिति में दृढ़ता पूर्वक रहने से तीनों प्रकार के कर्म क्षय हो जाते हैं।
३४. साधंतु भाव, ३५. नितंति भाव
सातु अर्थ सुद्धं साधयंति पंच दिति परमिस्टि ।
व्रितंति ब्रितं रुवं व्रितायन्ति ममल कम्म गलियं च ।। ५१४ ।।
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अन्वयार्थ (साधंतु अर्थ सुद्धं) प्रयोजनीय शुद्ध स्वभाव को साध रहे हो, साधना कर रहे हो (साधयंति पंच दित्ति परमिस्टि) तो पंच ज्ञान और परमेष्ठी पद को साधो, शुद्ध स्वभाव की साधना साधु पद में ही होती है (नितंति नितं रूवं) अपने शाश्वत स्वरूप में मगन रहना चाहते हो ( न्रितायन्ति ममल कम्म गलियं च ) तो अपने ममल स्वभाव में मगन रहो, उसी में नृत्य करो तो सारे कर्म गल जायेंगे ।
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विशेषार्थ - ३४. साधंतु भाव (साधन साधना करने के भाव ) अपने प्रयोजनीय शुद्ध स्वभाव को साध रहे हो, साधना कर रहे हो परंतु क्या इस दशा में यहां बैठे-बैठे शुद्ध स्वभाव की साधना होगी ? उसके लिये पंच
ज्ञान, परमेष्ठी पद को साधो, निर्ग्रन्थ वीतरागी साधु बनो, साधु पद में ही शुद्ध
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