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________________ गाथा-५२७HEEKH - ********* श्री उपदेश शुद्ध सार जी इससे वह अनंत काल तक ऐसा ही रहना चाहता है। केवलज्ञान उत्पन्न करने का यह परमार्थ, उपाय है। बाह्य व्यवहार चारित्र इसी का साधन रूप है 新北市些些行业常常 ---- --- जब यह जीव तत्त्वज्ञान का मनन करके तीन मिथ्यात्व, चार अनंतानुबंधी कषायों का उपशम, क्षयोपशम या क्षय होने पर चौथे सम्यक्त्व गुणस्थान, को प्राप्त होता है तब जिन कहलाता है क्योंकि उसने संसार भ्रमण के कारण मिथ्यात्व राग-द्वेष विकार को जीत लिया है, उसका उद्देश्य पलट गया है, वह संसार से वैराग्यवान व मोक्ष का प्रेमी हो गया है। क्षायिक सम्यक्त्वी जीव श्रावक या मुनि होकर सातवें अप्रमत्त गुणस्थान तक धर्म ध्यान की साधना करता है फिर क्षपक श्रेणी पर आरुढ़ होकर सर्व मोहनीय कर्म का क्षय करके बारहवें गुणस्थान में क्षीण मोह जिन हो जाता है। चौथे से बारहवें गुणस्थान तक जिन संज्ञा है फिर बारहवें के अंत में ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अंतराय तीन शेष घातिया कर्मों का क्षय होकर अरिहंत केवली तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त होते हैं तब वे जिनेन्द्र कहलाते हैं। यहां चारों घातिया कर्मों का अभाव है, उनके अभाव से केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिक वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र यह नौ क्षायिक लब्धियां तथा अनंत सुख प्राप्त हो जाता है। शेष अघातिया कर्म-नाम, आयु, गोत्र, वेदनीय का क्षय होने पर सर्व कर्म रहित अशरीरी, सिद्ध परमात्मा हो जाते हैं, जो अष्ट गुण सहित अष्टम भूमि सिद्ध शिला पर सादि अनंतकाल तक अपने शुद्ध स्वभाव, परमानंद में मगन रहते हैं। उपदेश शुद्ध सार भी यही है, इसकी आगे गाथा कहते हैंउवएस सुद्ध सारं, उवह परम जिनवर मएन । विलयं च कम्म मलयं, न्यान सहावेन उवएसनं तंपि॥५२७॥ अन्वयार्थ -(उवएस सुद्ध सारं) उपदेश शुद्ध सार भी यही है (उवइ8 परम जिनवर मएन) परम जिनेन्द्र परमात्मा ने समस्त भव्य जीवों को यही उपदेश दिया है (विलयं च कम्म मलय) सारे कर्म मल क्षय हो जाते हैं (न्यानी * सहावेन उवएसनं तंपि) अपने ज्ञान स्वभाव में लीन रहने से, यही उपदेश सार भूत है। ***** * * *** विशेषार्थ - अपने ज्ञान स्वभाव में लीन रहने से सारे कर्म क्षय होते हैं। केवलज्ञान और सिद्ध पद प्रगट होता है यही उपदेश शुद्ध सार है, जो परम जिनेन्द्र परमात्माओं ने जगत के समस्त भव्य जीवों के लिये उपदिष्ट किया है। भगवान ने दिव्यध्वनि में कहा है कि आत्मा में अखंड आनंद स्वभाव भरा है, जिसमें ज्ञानादि अनंत स्वभाव भरे हैं, ऐसे चैतन्य मूर्ति निज आत्मा की श्रद्धा करें, उसमें लीनता करें तो उसमें से केवलज्ञान का पूर्ण प्रकाश अवश्य प्रगट होता है। स्वरूप में लीनता के समय पर्याय में भी शांति और स्वभाव में भी शांति, आत्मा के आनंद रस में शांति ही शाति, अतीन्द्रिय आनंद होता है। इसी का एक-एक मुहूर्त स्थिर होना केवलज्ञान प्रगट करता है। समस्त कर्मों का क्षय होने पर सिद्ध पद होता है। यही उपदेश शुद्ध सार है, अनेक शास्त्रों का सार इसमें भरा है। जिन शासन का यह स्तंभ है, साधक को संजीवनी है, कल्पवृक्ष है, द्वादशांग का सार इसमें समाया हुआ है। साधक जीव को ज्ञानमात्र भाव रूप परिणमन में एक साथ अनंत शक्तियां उल्लसित होती हैं, जो स्व-पर प्रकाशक ज्ञान में ज्ञात होती हैं। ज्ञान में ज्ञान मात्र का वेदन होना ही अंतर्मुखता है। निज ज्ञान वेदन के काल में राग तथा पर के वेदन का उसमें अभाव है। श्री गुरु तारण स्वामी कहते हैं कि इस ग्रन्थ उपदेश शुद्ध सार में वही आत्मानुभव का मार्ग बताया है, जिससे कर्मों की निर्जरा पूर्वक मोक्ष की प्राप्ति हो तथा यह उपदेश परम जिनेन्द्र परमात्मा भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट किया गया है कि अपने ज्ञान स्वभाव में लीन होने से ही कर्मों का क्षय होता है। पर पर्याय के आश्रय से कभी मुक्ति होने वाली नहीं है। जो साधक अपने परम पारिणामिक भाव ध्रुव स्वभाव का आश्रय लेकर एक शुद्ध आत्मा की बारम्बार भावना करता है, वह वीतराग निर्ग्रन्थ साधु होकर क्षपक श्रेणी पर चढ़कर अंतर्मुहूर्त में चार घातिया कर्मों का क्षय करके केवलज्ञानी हो जाता है। फिर चार अघातिया कर्मों का क्षय होने पर संसार से * पूर्ण मुक्त शुद्ध सिद्ध परमात्मा हो जाता है। यही उपदेश शुद्ध सार और मुक्तिमार्ग है। प्रश्न-यह अघातिया कमाँ काय कैसे होता है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - 1-1-1-1-1---1-28 २९०
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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