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-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
सर्व मन, वचन, काय के योग से हटकर व सर्व जगत के पदार्थों से विरक्त होकर अपने उपयोग को अपने ही भीतर सूक्ष्मता से ले जाना चाहिये तब यह अनुभूति होगी। यह देखने जानने में आ जायेगा कि मैं ही परमब्रह्म परमात्मा हूं, यही आत्मदर्शन आत्मानुभव, केवलज्ञान का प्रकाशक है । इसका वेदन करना ही अलख को लखना है। भेददृष्टि से अभेद की अनुभूति नहीं होती ।
ज्ञानी साधक जिसने भेदज्ञान पूर्वक निज शुद्धात्मानुभूति की है अब उसे भेदज्ञान आलम्बन, आश्रय करने योग्य नहीं है, अब तो अपने शुद्ध ममल स्वभाव में रहना ही हितकारी है, इसी से सब कर्म क्षय होते हैं ।
मेरा कोई संबंध किसी भी परवस्तु पुद्गलादि से रंच मात्र भी नहीं है। मेरे में सब पर का अभाव है और सब पर में मेरा अभाव है। विश्व की अनंत सांसारिक एवं सिद्ध आत्मायें अपने मूल स्वभाव से परमात्म स्वरूप हैं, मैं स्वयं परमात्मा हूं तथापि मेरी सत्ता निराली है। मेरे ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, सम्यक्त्व, चारित्र, चेतना आदि गुण निराले हैं। मेरा परिणमन निराला है, इन सब आत्माओं का परिणमन निराला है। मेरे द्रव्य स्वभाव से एक समय की चलने वाली पर्याय भी अत्यंत भिन्न निराली है। मैं ध्रुव, ध्रुव, ध्रुव मात्र हूं, ऐसी अनुभूति दृढ़ प्रतीति, अटल श्रद्धान ज्ञान से सब कर्म क्षय होते हैं, मुक्ति की प्राप्ति होती है।
इस अखंड आनंद स्वरूप चैतन्य घन वस्तु में द्रव्य कर्म व राग तो है ही नहीं किंतु जो वर्तमान पर्याय वस्तु का अनुभव करती है, वह पर्याय वस्तु द्रव्य में नहीं है। पर्याय में त्रिकाली का अनुभव होता है तो भी पर्याय में द्रव्य नहीं आता किंतु त्रिकाली द्रव्य ध्रुव स्वभाव का ज्ञान आता है। ऐसी एक रूप चैतन्य वस्तु का अनुभव होने पर कोई भी भेदज्ञान के विकल्प नहीं होते, एकाकार चिन्मात्र ही अनुभूति में आता है, यही शुद्धोपयोग मुक्ति मार्ग है । १८. जानंति भाव, १९. कहंतुभाव
जानंति न्यान ममलं, जानंतो अप्प परमप्प कम्म गलियं च ।
कहंतु ममल झार्न, कहयंतो न्यान विन्यान ससरूवं ॥ ५०६ ।। अन्वयार्थ (जानंति न्यान ममलं) ज्ञानमयी ममल स्वभाव को जानने का भाव है (जानंतो अप्प परमप्प कम्म गलियं च ) मैं आत्मा, परमात्मा हूं
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ऐसा जानो, ऐसा जानने अनुभव करने से सब कर्म गल जाते हैं (कहंतु ममल झानं ) मैं ममल ध्यान स्वरूप हूं, ऐसा कहते हो ( कहयंतो न्यान विन्यान ससरूवं) मेरा स्वरूप वीतराग विज्ञानमयी केवलज्ञान स्वभावी है ऐसा कहने के साथ अनुभूति करो ।
विशेषार्थ १८. जानंति भाव- (जानने का भाव ) ज्ञानमयी ममल स्वभाव को जानने का भाव है अथवा ऐसा जानते हो परंतु मैं आत्मा परमात्मा हूं ऐसा जानो, ऐसा जानने अनुभव करने से सब कर्म गल जाते हैं।
१९. कहंतु भाव - ( कहने का भाव ) मैं ममल ज्ञान स्वभावी हूं, ऐसा कहते हो, पर मेरा स्वरूप वीतराग विज्ञानमयी केवलज्ञान स्वभावी है ऐसा कहने के साथ अनुभूति करो। अनुभूति ही मुक्तिमार्ग है । कहना सुनना शुभोपयोग है जो पुण्य बंध का कारण है, ममल स्वभाव का ध्यान धारण करो, शुद्धोपयोग से ही कर्मों का क्षय और मुक्ति की प्राप्ति होती है।
ज्ञान के लक्षण द्वारा श्रद्धा की और श्रद्धा के लक्षण द्वारा ज्ञान की पहिचान नहीं होती परंतु अनंत गुण भिन्न-भिन्न लक्षण वाले होने पर भी आत्मा कहने से उसमें एक साथ समस्त गुणों का समावेश हो जाता है। जो ऐसे अभेद आत्मा में अंतर्मुख होकर अनुभव करे उसे आत्मा के अनंत धर्मों की प्रतीति होती है।
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गाथा ५०६, ५०७ *****
जिस प्रकार घर में रत्नादि का भंडार भरा हो किंतु उसकी खबर न हो, तो वह न होने के समान ही है, उसी प्रकार आत्मा में सिद्ध भगवान जैसी अनंत शक्तियां होने पर भी जिसे उनकी खबर नहीं है, उनकी ओर उन्मुख होकर जो आनंद का अनुभव नहीं करता है, उसके तो वे शक्तियां न होने के समान ही हैं। बाहर से कहने और जानने से भी कोई लाभ नहीं है, उसकी अनुभूति की जाये, उस आनंद में डूबा जाये, तभी साध्य की सिद्धि होती है। २०. अमडेइ भाव, २१. साहति भाव
अमडे मुक्ति मग्गं, अमडाए मुक्ति न्यान सहकारं ।
साहति न्यान अवयासं, साहंति ममल कम्म विलयंति ॥ ५०७ ॥
अन्वयार्थ (अमडेइ मुक्ति मग्गं) मुक्ति मार्ग पर चलकर अमर होने
का भाव है (अमडाए मुक्ति न्यान सहकारं) अपने ज्ञान स्वभाव की साधना से मुक्ति होती है और तभी अमर हुआ जाता है (साहंति न्यान अवयासं) ज्ञान के
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