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________________ गाथा-५०४,५०५*-12--21-2----- 16--16: * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी अग्रभाग में विराजित सिद्ध स्वरूप की कल्पना करने से क्या लाभ है? * अपने ही भीतर आपको आपसे ही देखना चाहिये, इसी से कर्मों से छुटकारा 2 और मुक्ति की प्राप्ति होती है। निर्विकल्प होने से ही आत्मा अनुभव में आता है। जब तक रंचमात्र भी माया, मिथ्या, निदान की शल्य भीतर रहेगी व कोई प्रकार की कामना रहेगी या कोई मिथ्यात्व की गंध रहेगी, तब तक आत्मा का दर्शन नहीं होगा। यही कारण है कि जो ग्यारह अंग नौ पूर्व के धारी द्रव्यलिंगी मुनि शास्त्रों का ज्ञान रखते हुए घोर तपश्चरण करते हुए भी अज्ञानी मिथ्यादृष्टि ही रहते हैं क्योंकि वे शुद्धात्मा की श्रद्धा, ज्ञान तथा अनुभव से शून्य हैं। शुद्ध निश्चयनय के द्वारा अपने आत्मा का मनन करें, मनन करते समय भी मन का आलंबन है, मनन करते-करते जब मनन बंद होगा व उपयोग स्वयं में स्थिर हो जायेगा तब स्वानुभव होगा, तब ही आत्मा का परमात्म रूप सिद्ध स्वरूप का दर्शन होगा और परमानंद का स्वाद आयेगा, इसी से सब कर्मों से छुटकारा होगा। कर्मों को जीतना है, इस भाव से कभी कर्मों को नहीं जीता जाता, जिन भावों से कर्मों का बंध होता है उन भावों को छोड़कर शुद्धोपयोग में स्थित होने पर ही तीनों कर्मों से छुटकारा होता है। १४. लेतं भाव, १५. कलयंति भावलेतं सुद्ध सहावं, लेयंतो विमल कम्म गलियं च । कलियति अप्य सहावं, कलयंतो सुद्ध कम्म गलियं च ॥५०४॥ अन्वयार्थ - (लेतं सुद्ध सहावं) शुद्ध स्वभाव को ग्रहण करना है (लेयंतो विमल कम्म गलियं च) अपने विमल ममल स्वभाव का अनुभव करो इससे सारे कर्म गल जाते हैं (कलियंति अप्प सहावं) आत्म स्वभाव का ध्यान करना है (कलयंतो सुद्ध कम्म गलियं च) मै शुद्ध हूं, मैं सिद्ध हूँ, इसको ध्याओ * तो सब कर्म गल जाते हैं। विशेषार्थ- १४. लेतं भाव - (ग्रहण करने के भाव) शुद्ध स्वभाव * को ग्रहण करना है, यह भेद भाव, भेद दृष्टि है अपने विमल ममल स्वभाव का अनुभव करो तो सारे कर्म गल जाते हैं । भेद दृष्टि, भेद भाव से तो कर्मों का * आस्रव बंध ही होता है। १५.कलयंति भाव-(ध्यान करने के भाव) मुझे अपने आत्म स्वभाव का ध्यान करना है, इसमें भी भेद है। मैं शुद्ध हूं, मैं सिद्ध हूं, इसको ध्याओ, * अनुभव करो, शुद्धोपयोग रूप ही ध्यान है यही कर्म क्षय का कारण है। शुद्धोपयोग धर्म है। कषाय के उदय सहित शुभोपयोग धर्म नहीं है। अशुभ से बचने के लिये शुभोपयोग होता है तथापि उसे बंध का कारण मानना चाहिये। मोक्ष का उपाय एक मात्र स्वानुभव रूप शुद्धोपयोग ही है। कषाय का अंश मात्र भी बंध का कारण है। ज्ञानी यह जानता है कि मैं एक चैतन्य ज्योति स्वरूप हूं, जब मैं आत्मा के शुद्ध स्वभाव का अनुभव करता हूं तब नाना प्रकार के विकल्प जालों का समूह, जो इंद्रजाल के समान मन में था वह सब दूर हो जाता है। निर्विकल्प स्वरूप में स्थिर रहना ही शुद्धोपयोग है, इसी से सब कर्म क्षय होते हैं। १६. लण्यंतु भाव, १७. अन्मोय भावलष्यंत अलष लषियं. लष्यंतो लोयलोय ममलंच। अन्मोय विन्यानन्यानं, अन्मोयंति सुद्ध कम्मगलियंच ॥५०५॥ अन्वयार्थ-(लष्यंतु अलष लषियं) मन वचन काय से न जानने योग्य ऐसा जो अलख अपनाशुद्धात्मा है उसको लखने का भाव है (लष्यंतो लोयलोय ममलंच) जो लोकालोक को जानने वाला स्वयं अपना ममल स्वभाव है उसका अनुभव करो, उसे लखो (अन्मोय विन्यान न्यानं) भेदविज्ञान का आलंबन करते हो (अन्मोयंति सुद्ध कम्म गलियं च) अपने शुद्ध स्वभाव में डूबो, उसमें लीन हो जाओ, इससे सब कर्म गल जाते हैं। विशेषार्थ-१६. लण्यंत भाव-(लखने का भाव) मन,वचन, काय से न जानने योग्य ऐसा जो अलख अपना शुद्धात्मा है, उसको लखने का भाव है परंतु जो अलख है, उसे लखोगे कैसे? वह तो अनुभूति का विषय है। जो लोकालोक को जानने वाला स्वयं अपना ममल स्वभाव है, उसका अनुभव करो अंतर्दृष्टि से देखो। १७. अन्मोय भाव- (आलम्बन, आश्रय करना) अब भेदविज्ञान का आश्रय करते हो, अरे...अब तो अपने शुद्ध स्वभाव में डूबो, लीन रहो, इससे सब कर्म क्षय होते हैं। २७८ -E-E E-ME E-
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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