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________________ - 新北市要改行帝, 常常 ---- --- ********* श्री उपदेश शुद्ध सार जी पीओ (रहिओ संसार सुभावं) संसार स्वभाव से रहित होना है तो (रहिओ सरनि कम्म गलियं च) इस चक्कर से रहित हो जाओ इससे सब कर्म गल जायेंगे। विशेषार्थ -१०.पीओसि भाव- (पीने का भाव) जैसा सिद्ध भगवान अतीन्द्रिय आनंद अमृत रस पान करते हैं, वैसा अमृत रसायन पीना चाहते हो तो अपने ममल ज्ञान स्वभाव शुद्ध स्वरूप का अतीन्द्रिय आनंद अमृत रसपान करो, इसी आत्मानंद रूपी अमृत का पान करते हुए सिद्ध पद प्राप्त हुआ है। ११. रहिओ भाव- (रहित भाव) संसार स्वभाव से रहित होने का भाव है तो इस मोह माया के चक्कर से रहित हो जाओ, यह राग-द्वेष भाव छोड़ दो तो सब कर्म गल जायेंगे। इस लोक में समस्त जीव संसार रूपी चक्र पर चढ़कर पंच परावर्तन रूप भ्रमण करते हैं। आत्मा शुद्ध है, बुद्ध है चैतन्य घन ज्ञान ज्योति स्वयं सिद्ध है। किसी ने उत्पन्न किया हो या कोई नाश कर सके, ऐसा नहीं है। आत्मा स्वयं अतीन्द्रिय आनंद का धाम है। ऐसे अपने अभेद, अखंड, ध्रुवतत्त्व, ममल स्वभाव पर दृष्टि करने से अतीन्द्रिय आनंद अमृत रस का स्वाद आता है सारे कर्म क्षय होते हैं और सिद्ध पद की प्राप्ति होती है, जहां आनंद ही आनंद परमानंद है। यह धर्म रसायन ही परम अमृत है, जिसके पीने से ज्ञानी जीवों के मन में आनंद आता है । जन्म जरा मरण के दु:खों का क्षय होता है । इस लोक व परलोक दोनों में हित होता है। जब तक जियेगा परमानंद भोगेगा, सिद्ध दशा में सादि अनंत काल तक अतीन्द्रिय आनंद रस पान करेगा। अहं भाव अभूतार्थ होने से उससे भिन्न आत्मा की अनुभूति ही इष्ट प्रयोजनीय है। भाव हमेशा एक से रहने वाले नहीं हैं, बदल जाते हैं, इससे अभूतार्थ हैं। इस कारण से इनसे भिन्न आत्मा की अनुभूति ही अमृत रसायन का पान करना है। कर्म का सम्बंध व रागादि सम्बंध रहने वाला नहीं है, अभूतार्थ है इसलिये भूतार्थ का आश्रय करने से अभूतार्थ का नाश हो * जाता है। लोग स्त्री पुत्र परिवार को संसार मानते हैं किंतु वास्तव में वह संसार नहीं है, यह तो सब परवस्तु हैं। आत्मा का संसार बाहर में नहीं है किंतु अंदर ***** * * *** गाथा - ५०३ -24**** इसी की पर्याय में श्रद्धा में -मिथ्या श्रद्धा, राग-द्वेष है, वह संसार है । यदि स्त्री पुत्र परिवार आदि संसार हो तो यह तो मरण होने पर सब छूट जाते हैं, तो क्या संसार से छूट गया? नहीं, संसरणं इति संसार:, अपने चैतन्य स्वरूप से हटकर जितना मिथ्यात्व, राग-द्वेष मोहादि में आया वह संसार है। भगवान आत्मा स्वयं एकांत बोधरूप है । सहज अनाकुल, आनंद स्वरूप, वीतराग स्वभावी है, ऐसे आत्म स्वरूप की अनुभूति वह शिवपंथ है और पर के लक्ष्य से जितना राग होता है वह प्रमाद है । अनुभव में शिथिलता है उतना शिवपंथ दूर है। १२. विस्टंति भाव, १३. जिनिय भावदिस्टंति तिहुवनग्गं, दिस्टंतो ममल कम्म मुक्कं च । जिनियंचतिविहि कम्मं, जिनयंतो अनिस्टकम्मबंधानं॥५०३॥ अन्वयार्थ - (दिस्टंति तिहुवनग्ग) ज्ञानी भव्य जीव तीन लोक के अग्र भाग में विराजित सिद्ध परमात्मा को देखते हैं (दिस्टंतो ममल कम्म मुक्कं च) उसी सिद्ध स्वरूप को अपने ममल स्वभाव में देखो, इससे संपूर्ण कर्म छूट जाते हैं (जिनियं च तिविहि कम्म) तीनों प्रकार के कर्म को जीतने के भाव हैं तो (जिनयंतो अनिस्ट कम्म बंधानं) उस भाव को जीतो जिससे अनिष्ट कर्म का बंध नहीं होता। विशेषार्थ-१२. विस्टंति भाव- (देखने के भाव) तीन लोक के अग्रभाग में विराजित सिद्ध स्वरूप को देखते हो। वह सिद्ध स्वरूप अगोचर है वह देखने में आता ही नहीं है, अपने ममल स्वभाव को देखो, जो स्वयं सिद्ध स्वरूपी है जिसको देखने से सारे कर्म छूट जाते हैं। १३.जिनियं भाव-(जीतने का भाव) तीनों प्रकार के कर्म-द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म को जीतने के भाव हैं तो इन शुभाशुभ रागादि भावों को जीतो जिससे फिर अनिष्ट कर्मों का बंध ही न होवे अर्थात् शुद्धोपयोग रूप रहने पर ही तीनों कर्मों को जीता जाता है। नवीन कर्म का बंध नहीं होता तथा पूर्व बद्ध कर्म निर्जरित क्षय हो जाते हैं, यही तीनों प्रकार के कर्मों को जीतना है । सम्यक्दृष्टि सदा ही जानता है व सदा ही अनुभव करता है कि जब मैं अपने भीतर शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से देखता हूं तो मुझे मेरा आत्मा ही परमात्मा जिनदेव सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा दिखता है तो फिर तीन लोक के 祭茶茶茶茶 地市市章年年地點 层多层多层卷卷 २७७
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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