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________________ 5-9- HHHHHH श्री उपदेश शुद्ध सार जी गाथा-५०१,५०२-H-------- -- उसमें स्थिरता है। इसको ही आत्मदर्शन, देवदर्शन, परमात्मदर्शन है (धरयंतो सूषम कम्म विपनं च) अपने शुद्धोपयोग सूक्ष्म स्वभाव को धारण * कहते हैं । यही एक धर्म रसायन है, अमृत रस का पान है, जिसके पीने से कर लो तो सब कर्म क्षय हो जायेंगे। स्वाधीनपने परमानंद का लाभ होता है, कर्म क्षय होते हैं और शीघ्र ही कर्म विशेषार्थ -८. बोलतो भाव - (बोलने के भाव) बोल रहे हो कि से मुक्त हो, शुद्ध पवित्र, ममल पूर्ण निज स्वभाव मय होकर सदा ही वीतराग कर्मों को जीतना है परंतु यह बोलना ही अशुद्ध है, जो असत् क्षणभंगुर * भाव में मगन रहता है। फिर राग-द्वेष, मोह के न होने से पाप-पुण्य का बंध नाशवान है, जड़ पुद्गल कर्म वर्गणाये हैं जिनका स्वभाव क्षय होने का है, नहीं होता, इससे फिर चार गति में से किसी भी गति में नहीं जाता है। सदा के तुम उन्हें महत्व दे रहे हो, सत्ता मान रहे हो यही अज्ञान भ्रम है। अरे! यह लिये अजर अमर हो जाता है, अत: अब कहने के भाव में मत रहो, जो कह बोलो कि मै शुद्ध हूं, ममल हूं, सिद्ध हूं तो यह कर्म तो स्वयं विला जायेंगे। रहे हो.कहा गया है ऐसे अपने ममल स्वभाव में डूबो । जानने पहिचानने, ९. धरयंति भाव - (धारण करने का भाव) मुझे धर्म, शुक्ल ध्यान परखने के भाव में ही मत लगे रहो, जैसा जाना पहिचाना है ऐसे अपने शुद्ध धारण करना है, ध्यान लगाना है, किसका ध्यान लगाना है, कैसा ध्यान अविनाशी, परम पारिणामिक भाव स्वरूप में लीन रहो तो यह सब विला लगाना है? यह सब व्यवहारिक भाषा और क्रिया अभूतार्थ, असत्यार्थ है। जायेंगे। कर्मोदय की तरफ मत देखो अपने शुद्ध ममल स्वभाव को देखो, अपने सूक्ष्म स्वभाव शुद्धोपयोग को धारण कर लो तो यह कर्म स्वयं क्षय हो तभी यह कर्म विलाते हैं। जाते हैं। त्रिकाली आत्मा, कारण परमात्मा, कारण भगवान स्वभाव रूप, भूतार्थ साधक को भेदज्ञान, तत्त्व निर्णय द्वारा वस्तु स्वरूप जानना चाहिये। भाव.ज्ञायक भाव यह सब एकार्थ वाचक हैं,यह कारण तो कार्य उत्पन्न करते द्रव्यदृष्टि के द्वारा द्रव्य स्वभाव को जानकर आत्मा का व पुद्गल का ज्ञान ही हैं । पर किसको ? जिसने निज कारण परमात्मा को अंतर से स्वीकार श्रद्धान करके जैसा यथार्थ स्वरूप है वैसा जाने, फिर पर को छोड़कर केवल किया हो, माना हो, कारण रूप वस्तु तो है ही। चैतन्य के तेज से भरपूर और एक अपने आप को ही देखे जाने । वहां पर कर्म संयोगादि रहता ही नहीं है, अनंत-अनंत शक्ति की सामर्थ्य से परिपूर्ण भरा हुआ चैतन्य सूर्य भगवान जो पूर्व कर्म बंध हैं वह स्वयं विला जाते हैं, क्षय हो जाते हैं। आत्मा प्रकाशमान तो है ही, पर किसे ? जिसने ज्ञान की पर्याय में जाना समाधि भाव में तिष्ठकर जो ज्ञान स्वरूप आत्मा का अनुभव करता उसे। पर्याय ज्ञायक में मिले बिना पर्याय-पर्यायपने रहकर ज्ञायक की प्रतीति है उसे ही ध्यान कहते हैं। करने की आदत से थोड़ा सावधान रहें, करती है। वही ज्ञायक भाव समस्त अन्य द्रव्यों के भावों से भिन्नपने उपासना भूलकर भी न सोचें कि हम ध्यान करने जा रहे हैं, बैठे तो वह भी क्रिया में आता हुआ शुद्ध कहलाता है। ज्ञायक भाव तो शुद्ध ही है किंतु स्वसन्मुख है, करें तो वह भी क्रिया है, आयें तो वह भी क्रिया है। ध्यान कुछ भी होकर जो शुद्ध का ज्ञान व अनुभव (प्रतीति) करता है, उसे शुद्ध कहा जाता करने से नहीं होता है, ध्यान न करने से होता है। कुछ न करो और है। ऐसे अपने शुद्ध स्वभाव में लीन रहो, ऐसी भाव शक्ति जगाओ तभी यह ध्यान हो जायेगा । ध्यान में उनका प्रवेश होता है, जो स्मृति के पत्थर कर्म विलाते हैं। हटा देते हैं। ८.बोलतो भाव, ९. धरयंति भाव १०.पीओसि भाव, ११. रहिओ भाव - बोलंतो कम्म जिनियं, बोलन्तो सुद्ध कम्म विलयंति। पीओसि परम सिख, पीवंतो ममल झान सुद्धं च। 4 धरयति धम्म सुक्कं, धरयंतो सूषम कम्म विपर्न च॥५०१॥ रहिओ संसार सुभावं, रहिओ सरनि कम्म गलियं च॥५०२॥ अन्वयार्थ-(बोलतो कम्म जिनियं) बोल रहे हो कि कर्मों को जीतना अन्वयार्थ -(पीओसि परम सिद्ध) जैसा सिद्ध परमात्मा परम सिद्धत्व * है (बोलन्तो सुद्ध कम्म विलयंति) मैं शुद्ध हूं, ममल हूं, अंतर से बोलो तो कर्म रूपी अमृत का पान करते हैं वैसा अमृत रस पीना चाहते हो (पीवंतो ममल * विला जाते हैं (धरयंति धम्म सुक्कं) धर्म ध्यान, शुक्लध्यान को धारण करना ... झान सुद्धं च) तो अपने ममल ज्ञान स्वभाव शुद्ध स्वरूपी आत्मानंद का अमृत HTAKAM 北市市政市帝。 层层层经》卷
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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