________________
*
-E
E
******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
होने के बाद कोई शक्ति जीव को संसार में नहीं रख सकती; परंतु पूर्व अज्ञान जन्य जो भी कर्म बंध सत्ता में पड़ा है वह जब तक निर्जरित क्षय नहीं होगा,तब तक इस मार्ग पर चलना अर्थात् अपने स्वरूप में डूबना, निरंतर आनंद परमानंद में रहना अशक्य है। अब तो पुरुषार्थ और चारित्र मोहनीय का खेल है, ज्ञान पूर्वक आत्मबल जगाओ, सत्पुरुषार्थ करो, इससे कर्म गलते विलाते क्षय होते हैं और जैसे-जैसे कर्म क्षय होते जायेंगे, मुक्ति मार्ग पर
म होगा। इतनी समता, शांति, दृढ़ता, ज्ञानबल की आवश्यकता है।
४. चेतन्ति भाव, ५. रुचितं भावचेतन्ति सुद्ध सुद्ध, सुखं ससहाव चेत उवएसं । रुचितं ममल सहावं, रुवियन्तो न्यान निम्मलं ममलं ॥ ४९९ ॥
अन्वयार्थ - (चेतन्ति सुद्ध सुद्ध) साधक अपने स्वरूप का शुद्ध ही शुद्ध है, ऐसा चिंतन करता है (सुद्धं ससहाव चेत उवएस) उसके लिये उपदेश है कि अपने शुद्ध स्वभाव की अनुभूति करो (रुचितं ममल सहावं) ममल स्वभाव की तरफ रुचि करता है (रुचियन्तो न्यान निम्मलं ममलं) मैं निर्मल ममल ज्ञान स्वभावी ही हूं ऐसी रुचि में लीन हो जाओ।
विशेषार्थ-४. चेतन्ति भाव - (चिंतन भाव) साधक अपने स्वरूप का शुद्ध ही शुद्ध है, ऐसा चिंतन करता है। उसके लिये उपदेश है कि शुद्ध स्व स्वभाव की अनुभूति करो, चिन्तन नहीं चेत (अनुभूति) करो।
५.रुचितं भाव-(रुचि भाव) अपना ममल स्वभाव रुचता है, अच्छा लगता है, इस रुचि को ऐसा मोड़ो कि निरंतर अपना निर्मल ममल ज्ञान स्वभाव ही झलकना चाहिये । जैसे-किसी को अपने पुत्र या कोई विशेष निधि की प्रियता होती है तो वह उसकी आंखों में निरंतर झूलता है, ऐसे ही अपना ममल स्वभाव ही दिखना चाहिये और कुछ दिखे ही नहीं ऐसी रुचि तीव्र लगन करो।
जैसे-कोई स्त्री पति के परदेश जाने पर अपना घर का काम करती हुई भी बार-बार पति का स्मरण करती है कभी स्थिर बैठकर पति के गुणों को व प्रेम को विचार करती है। इसी तरह साधक ममल शुद्ध स्वभाव का प्रेमी अंतरात्मा ज्ञानी गृहस्थ हो या साधु वह अपने अन्य कार्यों को करते हुए
गाथा-४९९,५००*-12--21-2---- बार-बार शुद्धात्म स्वरूप का स्मरण चिंतन करता है। कभी एकांत में स्थिर बैठकर गुणों को विचारता है, कभी ध्यान में लीन हो जाता है। किसी प्रकार की वांछा व फल की चाहना नहीं रखता है, उसके भीतर संसार के सर्व क्षणिक पदों से पूर्ण वैराग्य है । वह इंद्र चक्रवर्ती आदि के पदों को भी नहीं चाहता है. न वह इंद्रियों के तृष्णा वर्द्धक भोगों को चाहता है, न वह अपनी पूजा या प्रसिद्धि चाहता है।
वह कषाय कालिमा को बिल्कुल मेटना चाहता है, वीतरागी होना चाहता है, स्वानुभव प्राप्त करना चाहता है, निजानंद रस पान करना चाहता है, इसके लिये सद्गुरु का उपदेश है कि चिंतन नहीं, अनुभूति करो। रुचि नहीं लीनता का पुरुषार्थ करो, यही अपनी भावशक्ति को मोड़ना है, जिससे प्रत्यक्ष आनंद परमानंद मयी ज्ञान स्वभाव की अनुभूति होवे ।
६. उत्तं भाव, ७. परवे भावउत्तं च सुखसुद्ध, उत्तायन्तु ममल कम्म विलयं च। परषे परम सुभावं, परपंतो सुद्ध कम्म विलयंति ॥ ५००॥
अन्वयार्थ - (उत्तं च सुद्ध सुद्ध) शुद्ध हूं. शुद्ध हूं ऐसा कहते हो (उत्तायन्तु ममल कम्म विलयं च) इस कहे हुए ममल स्वभाव में लीन होने से सब कर्म विला जाते हैं (परषे परम सुभावं) अपने परम पारिणामिक स्वभाव को परख रहे हो, पहिचान रहे हो (परषंतो सुद्ध कम्म विलयंति) अपने शुद्ध अविनाशी स्वभाव को देखने से या अनुभवने से सब कर्म विला जाते हैं।
विशेषार्थ-६. उत्तं भाव- (कहना, कहा गया है) मैं शुद्ध हूं, मैं शुद्ध हूं ऐसा कहते हो, इस कहे हुए ममल स्वभाव में लीन होने से सब कर्म विला जाते हैं।
७.परचे भाव- (देखने पहिचानने के भाव) अपने परम पारिणामिक स्वभाव को परख रहे हो, पहिचान रहे हो। अरे! अपने शुद्ध अविनाशी स्वभाव को देखने से अनुभवने से सब कर्म विला जाते हैं।
धर्म उसे ही कहते हैं जो ससार के दु:खों से छुड़ाकर मोक्ष परम पद प्राप्त करा दे। वह धर्म रत्नत्रय स्वरूप है। रत्नत्रय के भाव से ही नवीन कर्मों का संवर होता है व पुरातन कमों की अविपाक निर्जरा होती है। यह रत्नत्रय
निश्चय से अपना शुद्धात्म स्वभाव है, आत्म तल्लीनता है, स्वसंवेदन है, १७ स्वानुभव है। जहां अपने ही आत्मा के शुद्ध स्वभाव का श्रद्धान है, ज्ञान है व
*************