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________________ E शि * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी प्रगट करने की शक्ति है। इसके अतिरिक्त अन्य लाखों उपाय करें, 2 लाखों करोड़ों रुपयों का दान करें, अनेक तीर्थ यात्रायें करें.त्यागी होकर * व्रतादि करके सूख जायें तथापि उन बाह्य उपायों से यह चैतन्य भगवान आत्मा दर्शन नहीं देगा। अंतर में दृष्टि डालते, भाव बदलते ही कृतकृत्य कर दे, ऐसा चैतन्य चिंतामणि ममल स्वभाव भगवान आत्मा है । पर सन्मुख देखने से कभी भी स्व सन्मुख देखना नहीं होता। अनंत गुणों से अभेद आत्म द्रव्य को लक्ष्य में लेकर जहां साधक जीव परिणमित हुआ, वहां उसके परिणमन में अनंत शक्तियां आत्मा में अभेद होकर परिणमित हुईं, उसी को वहां ज्ञानमात्र भाव कहा है और उसी से सारे कर्म क्षय होते हैं। २.इच्छति भाव, ३. विपिऊन भावइच्छंति मुक्ति पंथं, इच्छायारेन सुद्ध पंथ दसति । पिपिऊन तिविहि कर्म,षिपनिकसहकार कम्म विलयति॥४९८॥ अन्वयार्थ - (इच्छंति मुक्ति पंथं) भव्यजीव मोक्षमार्ग की इच्छा करते हैं (इच्छायारेन सुद्ध पंथ दसैंति) इच्छानुकूल शुद्ध मार्ग अपना ममल स्वभाव देखो, शुद्धोपयोग की साधना करो जिससे (पिपिऊन तिविहि कम्म) तीनों प्रकार के द्रव्य, भाव, नोकर्म क्षय हो जावें (षिपनिक सहकार कम्म विलयंति) क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र का सहकार करो तो सब कर्म विला जाते हैं। विशेषार्थ-२. इच्छंति भाव-साधक हो, मोक्ष की भावना करते हो तो इच्छानुकूल शुद्धमार्ग अपना ममल स्वभाव देखो, शुद्धोपयोग की साधना करो। ३.क्षायिक भाव - साधक तीनों कर्म-द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म क्षय हो जावें ऐसी भावना करता है तो कर्म अपने क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र रूप परिणमन से क्षय होते हैं। भावना के साथ उसके यथार्थ मार्ग पर * चलना तभी साध्य की सिद्धि होती है। जिसने भेदज्ञान,तत्व निर्णय द्वारा वस्तु स्वरूप को जाना है। सम्यकदर्शन पूर्वक सम्यक्ज्ञान से स्व-पर का यथार्थ निर्णय किया है ऐसे सम्यक्दृष्टि ज्ञानी साधक के अंतरंग में यह भाव उठते हैं, तीव्र इच्छा होती है कि अभी मोक्ष प्राप्त हो जावे, वह संसार में एक समय के लिये भी नहीं रहना 茶卷卷卷崇条条 गाथा - ४९८** ***** चाहता; क्योंकि ज्ञानी को विकल्प रुचते ही नहीं हैं परंतु जब तक कर्मोदय संयोग है तब तक विकल्प होते हैं, तीनों कर्मों को क्षय करने के भाव होते हैं कि शीघ्र ही कर्म क्षय हो जावें परंतु मार्ग तो एक ही है-शुद्धोपयोग की साधना, ममल स्वभाव में रहना, अपने धुवतत्त्व शुद्धात्मा को ही देखना, उसी की दृष्टि होना, दृढतापूर्वक क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र का सहकार होने पर ही तीनों कर्म क्षय होते हैं। सद्गुरु यहां भाव, ज्ञान और उसका यथार्थ मार्ग बता रहे हैं । साधक को अंतरंग में बैठकर यह सब देखना चाहिये और अहं के साथ की सूक्ष्म संधि को तोड़कर, अपने सत्स्वरूप की सही साधना होने पर आनंद ही आनंद, मुक्ति की प्राप्ति, कर्मों का क्षय सब एक साथ होता है। राग-द्वेष, कषाय के उदय से होते हैं, तब सत्ता में बंध प्राप्त कषाय की वर्गणाओं का अनुभाग सुखाने, क्षय करने के लिये निरंतर आत्मानुभव का व वैराग्य का मनन करते रहना चाहिये तब उदय मंद होता जायेगा । राग-द्वेष की कालिमा घटती जायेगी। इस तरह ज्ञानी को उचित है कि जिस तरह हो वीतराग होने का व समभाव पाने का उपाय करना चाहिये। सम्यज्ञान का बार-बार विचारकर, पदार्थों को जैसे वे हैं, वैसा ही उनको देखकर प्रीति व अप्रीति मिटाकर द्रव्यदृष्टि बनाकर आत्मज्ञानी साधक आत्मा को ध्यावें। जैसे बीज से मूल व अंकुर होते हैं, वैसे ही मोह के बीज से राग-द्वेष होते हैं; इसलिये जो राग-द्वेष को जलाना चाहे, उसे ज्ञान की अग्नि से इस मोह को जलाना चाहिये । जहां तक राग-द्वेष का संबंध है वहां तक कर्म क्षय नहीं होते इसलिये रागादिक विभावों को तथा बाहरी व भीतरी दोनों प्रकार के विकल्पों को त्यागकर, एकाग्र मन होकर सर्व कर्म मल रहित निरंजन अपने ही ममल स्वभाव को ध्याना चाहिये। प्रश्न -जब सम्यदर्शन ज्ञान हो गया फिर मुक्ति मार्ग पर चलने में इतनी बाधा क्यों होती है ? समाधान - जब जीव की काललब्धि आई तब सम्यक्दर्शन हुआ, अनुकूलता मिली, ज्ञानोपयोग किया तो सम्यक्ज्ञान हो गया परंतु मुक्ति मार्ग पर चलने के लिये सम्यक्चारित्र आवश्यक है और उसमें सामने पूर्वबद्ध कर्मों की सत्ता बाधक है। मुक्ति होना है, मुक्ति होगी यह निश्चित है। सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान HE-E-HEHERE २७४
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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