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गाथा -४९७-----
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多层司朵》卷
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********* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
साथ मैत्री करें व किसके साथ कलह करें। राग-द्वेष तो नाना भेदरूप * दृष्टि में ही हो सकते हैं। सर्व को शुद्ध एकाकार देख लिया, तब शत्रु व मित्र
की कल्पना ही न रही। व्यवहार निमित्त साधन के द्वारा जो भाव प्राप्त करना था सो प्राप्त कर लिया, समभाव ही चारित्र है, समभाव ही धर्म है. समभाव ही परमतत्त्व है सो मिल गया, वह भव्य जीव कृतार्थ हो गया, बंध की परिपाटी से छूट गया, निर्जरा के मार्ग में आरूढ़ हो गया, मुक्ति को निश्चित ही प्राप्त करेगा।
मोक्ष के चाहने वाले भव्य जीव को उचित है कि सर्व ही क्रियाकांड व मन, वचन,काय की क्रिया का ममत्व त्याग देवे व जहां आत्मा के निज स्वभाव के सिवाय सर्व का त्याग हो, वहां पुण्य-पाप के त्याग की क्या बात है? अर्थात् इन दोनों का त्याग है ही। सम्यकदर्शन, ज्ञान, चारित्रमयी स्वभाव में रहना ही मोक्ष का मार्ग है। इस मार्ग में जो रहता है उसके पास कर्म रहित भाव से प्राप्त व आत्मीक रस से पूर्ण ऐसा केवलज्ञान स्वयं प्रगट होता है, वह स्वयं तारण तरण बन जाता है।
प्रश्न- इस दशा को प्राप्त करने के लिये क्या करना चाहिये ?
समाधान-अपनी भावना जगाना, आत्म पुरुषार्थ जाग्रत करना। अभी जो बाहर में कुछ करने के भाव होते हैं, अहं बोलता है, उसकी धारा को मोड़ देना, इसके लिये जो-जो भाव पैदा होते हैं उन्हें आत्मा की ओर मोड़ना। अपने आत्म स्वरूप के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं। सर्वत्र सर्वमय आत्मा अपना ममल स्वभाव ही देखना, इस भावना से आत्मबल प्रगट होता है, एक विशेष शक्ति जाग्रत होती है, जिससे सब पर पर्याय से दृष्टि हटकर ममल स्वभाव में स्थिरता होती है तथा सब कर्मादि गलते विलाते क्षय होते हैं और मुक्ति की प्राप्ति होती है।
प्रश्न- यह भावनायें कैसी होती और इन्हें कैसे जगाना चाहिये।
समाधान - अहं भाव से हटकर अनुभूति में डूबना, शुद्धोपयोग की * साधना करना। इसके लिये सद्गुरु तारण स्वामी ने ४७ भावनाओं का वर्णन * किया है, जो सामान्यत: हर साधक के भीतर उठती हैं, उन्हें मोड़ देने का भी * उपाय बताया है, जैसे हम देखना चाहते हैं तो बाहर सबको देखते हैं । सद्गुरु
कहते हैं देखना है तो मलरहित अपने ममल स्वभाव को देखो, इसी प्रकार * सैंतालीस भाव व्यक्त किये हैं।
प्रश्न - वह भाव कौन-कौन से कैसे हैं, उन्हें कैसे मोड़ा जाये यह बताइये?
इसके लिये सद्गुरु आगे गाथाओं में समाधान स्वरूप ४७ भावों का कथन करते हैं
१. वसति भावदसति सव्व दस, दर्सयंति सुख ममल मल मुक्कं । ___ अन्मोयं न्यान सहकारं, उवएसंच कम्म गलियं च ॥४९७॥
अन्वयार्थ- (दसति सव्व दर्स) देखने के भाव में सबको देखते हो (दर्सयंति सुद्ध ममल मल मुक्कं) देखना चाहते हो तो अपने शुद्ध, मल से रहित ममल स्वभाव को देखो (अन्मोयं न्यान सहकार) अपने ज्ञान स्वभाव का आलंबन और सहकार करो (उवएसं च कम्मगलियं च) यही उपदेश जिनेन्द्र परमात्मा का है और तुम भी यही उपदेश कर रहे हो कि अपने ममल स्वभाव को देखने से कर्म गल जाते हैं।
विशेषार्थ-१. वसति भाव-देखने का भाव होता है. सबको देखते हो, अरे ! देखना चाहते हो तो अपने शुद्ध मल से रहित ममल स्वभाव को देखो । अपने ज्ञान स्वभाव का ही आलंबन और सहकार करो, जब जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है और तुम भी कह रहे हो, उपदेश दे रहे हो कि अपने ममल स्वभाव को ही देखने से सब कर्म गल जाते हैं तो स्वभाव का ही आश्रय रखो।
भाव शक्ति का परिवर्तन हो जाना ही मुक्ति मार्ग है, वर्तमान संयोगी ॐ पर्याय में इस भाव शक्ति का अहं (कषाय) से संबंध जुड़ा है। अहं भाव संसार
की तरफ ले जाता है। ज्ञान पूर्वक इस भाव को अपने स्व स्वरूप में लगाना ही ज्ञानी का पुरुषार्थ है। इसी भाव शक्ति से आसव बंध भी होता है तथा इसी भाव शक्ति से संवर निर्जरा और मोक्ष होता है। यह सूक्ष्म परिणति है, साधक इसकी संभाल कर ले और इसकी धारा को मोड़ने लगे तो आत्म शक्ति प्रगट
होने लगती है। तू
ज्ञान लक्षण को अंतरोन्मुख करने से आत्मा लक्ष्य में आता है, इसके अतिरिक्त अन्य किसी उपाय से आत्मा ज्ञात नहीं हो सकता। शरीर की क्रिया से अथवा भक्ति, पूजा उपवासादि शुभ क्रिया कांड से ऐसा आत्मा ज्ञात नहीं
हो सकता; परंतु ज्ञान को अंतर्मुख करने रूप जो भावशक्ति है वही आत्मा को २७३
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