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________________ ********** *-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी नौका है। यह निश्चय रत्नत्रय स्वरूप है, शुद्धात्मानुभव स्वरूप है । आत्मीक अतीन्द्रिय आनंद को सिद्धि सुख या सिद्धों का सुख कहते हैं। जैसा शुद्धात्मा का अनुभव सिद्ध भगवान को है, वैसा ही शुद्धात्मा का जब अनुभव होता है तब जैसा सुख आनंद सिद्धों को वेदन होता है, वैसा ही सुख आनंद शुद्धात्मा का वेदन करने वालों को होता है। यह सब आत्म भावना और आत्म पुरुषार्थ से ही होता है । पुरुषार्थ के द्वारा स्वरूप की दृष्टि करने से और उस दृष्टि के बल से स्वरूप में रमणता करने से पूर्व बद्ध कर्म क्षय होकर पर्याय में शुद्धता प्रगट होती है। मोक्षमार्ग के प्रारंभ से मोक्ष की पूर्णता तक सर्वत्र सम्यक् पुरुषार्थ और ज्ञान का ही कार्य है । प्रश्न- यह बात चित्त में बैठती क्यों नहीं है, इसके लिये क्या करें? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं तारन तरन समर्थ, उब इस्ट दिस्टि सुद्धं च । अन्मोयं सहकार, उवएस विमल कम्म गलियं च ।। ४९६ ।। अन्वयार्थ - ( तारन तरन समर्थ) तारण तरण अर्थात् जो स्वयं तरे और दूसरों को तारे वह परमात्मा स्वरूप आत्मा समर्थ है, शक्तिशाली है ( उवइ इस्ट दिस्टि सुद्धं च) वह अपने शुद्ध स्वभाव से इसका उपदेश दे रहे हैं कि शुद्धोपयोग की दृष्टि ही हितकारी है (अन्मोयं सहकारं ) शुद्धोपयोग का आलंबन लो, सहकार करो (उवएस विमल कम्म गलियं च) शुद्धोपयोग रूपी उपदेश को जो अपने में धारण करते हैं, उनके ममल स्वभाव की साधना से कर्म गल जाते हैं। विशेषार्थ मन, बुद्धि, चित्त, अहं यह सब कर्मोदयजन्य पर्यायी परिणमन है । चित्त भी चंचल, अदृढ़, अस्थिर है, इनके आश्रय आत्मा की साधना नहीं होती। इन सबसे हटकर अपने अंतरात्मा में पुरुषार्थ जाग्रत करो। आत्मा स्वयं तारण तरण समर्थ है। भगवंतों का उपदेश क्या है ? शुद्धोपयोग की दृष्टि ही इष्ट हितकारी है, अपने उपयोग को शुद्ध स्वभाव में लगाओ, अब यह पर पर्याय की तरफ क्यों देखते हो ? - जब मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा हूं, ध्रुवतत्त्व शुद्धात्मा हूं, ममल स्वभावी केवलज्ञान स्वरूप परमात्मा हूं। यह स्वयं अनुभव में है, दूसरों को बता रहे २७२ गाथा ४९६ *-*------ हो, उपदेश दे रहे हो फिर स्वयं इसका आलंबन लो, सहकार करो, स्वयं अपने ममल स्वभाव ध्रुवधाम में रहो। अपने विमल ममल स्वभाव में रहने से ही सब कर्म गलते विलाते हैं। दूसरों को बताना, उपदेश देना सरल है, पर स्वयं उस रूप आचरण करना शूरवीर नर का काम है। जब भेदज्ञान तत्त्वनिर्णय पूर्वक वस्तु स्वरूप को जान लिया, निज शुद्धात्मानुभूति हो गई, सम्यक्ज्ञान हो गया फिर अब स्वयं पुरुषार्थ करो । यह चित्त आदि को क्या देखते हो। वह तो वेदक सम्यक्त्व, दर्शन मोहांध से चल मल अगाढ़ रूप हो रहा है। अपने आत्म स्वरूप का दृढ़ श्रद्धान करो और स्वयं स्वयं में डूबो तो यह सब कर्मादि क्षय हो जायें, तुम स्वयं तारण तरण समर्थ हो, पर के आश्रय से काम चलने वाला नहीं है। स्वयं का पुरुषार्थ जगाओ, अपने ध्रुवतत्त्व शुद्धात्मा ममल स्वभाव का आलंबन लो, सहकार करो, शुद्धोपयोग की साधना से ही मुक्ति परमानंद की प्राप्ति होती है। यदि आत्मा को आत्मा समझेगा कि मैं ध्रुवतत्त्व शुद्धात्मा हूं, इस स्थिति में रहेगा तो निर्वाण को पायेगा और यदि पर पदार्थों को अपना मानेगा तो तू संसार में भ्रमण करेगा। साधक को बाहरी चारित्रों में, निमित्त मात्र में संतोष नहीं करना चाहिये । जब आत्मा आत्म समाधि में व आत्मानुभव में वर्तन करे, तब ही कुछ फल हुआ, तब ही मोक्षमार्ग सधा, ऐसा भाव रखना चाहिये; क्योंकि जब तक शुद्धात्मा का ध्यान होकर शुद्धोपयोग का अंश प्रगट नहीं होता, तब तक संवर व निर्जरा तत्त्व प्रगट नहीं होंगे। निश्चय से ऐसा समझना चाहिये कि मोक्ष का मार्ग एक आत्म ध्यान की अग्नि का जलना है, एक आत्मानुभव है, आत्मा का आत्मा रूप अनुभव है, यह आप ही आपको शुद्ध करता है, उपादान कारण आप ही है, यदि परिणामों में आत्मानुभव नहीं प्रगटे तो बाहरी चारित्र से शुभाशुभ भावों के कारण बंध होगा, संसार बढ़ेगा, मोक्ष का साधन नहीं होगा । यह जीव अनादि से अनंत काल तक रहने वाला है, चंचलता रहित निश्चल है, स्वयं चेतनामयी है, स्वानुभव गोचर है, सदा ही प्रकाशमयी है । अनुभव की माता भावना है। भावना के समय उसे शुद्ध दृष्टि से शुद्धात्मा ही दिखता है। द्रव्यदृष्टि से जब सर्व जीवों को समान देख लिया, तब किसके -*-*
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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