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________________ HEREMEEN त्र * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी गाथा-५०८,५०९*** अभ्यास का साधन करना चाहते हो (साहति ममल कम्म विलयंति) रहे हो (पोषंति विन्यान कम्म षिपनं च) अपने विज्ञान घन स्वभाव का पालन अपने ममल स्वभाव को साधो अर्थात् ममल स्वभाव मय रहो तो सारे कर्म करो, सेवन करो जिससे सारे कर्म क्षय होते हैं (सिद्धंतु कम्म षिपनं) कर्मों को विला जाते हैं। क्षय करना, सिद्ध करना चाहते हो (सिद्धति कम्म तिविहि मुक्कं च) तो अपने विशेषार्थ - २०. अमडे भाव - (अमर होने का भाव) मुक्ति मार्ग सिद्ध स्वरूप को सिद्ध करो, साधो जिसमें तीनों प्रकार के कर्म हैं ही नहीं, जो पर चलकर अमर होना चाहते हो तो अपने ज्ञान स्वभाव की साधना से मुक्ति तीनों प्रकार के कर्म से मुक्त है। होती है और तभी अमर होते हैं। मोक्ष तो आत्मा का परिपूर्ण शुद्ध स्वभाव है, विशेषार्थ - २२. पोषंतु भाव - (पोसने, पालन करने, संभालने के तब उसका साधन उसी स्वभाव की भावना है आत्म दर्शन है। निश्चय रत्नत्रय भाव) भेदविज्ञान का पालन कर रहे हो, अपने विज्ञानघन ममल स्वभाव का है, स्वानुभव है। शुद्धोपयोग से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है। पालन करो, उसे संभालो जिससे सब कर्म क्षय होते हैं। २१. साहंति भाव- (साधन का भाव) ज्ञान के अभ्यास की साधना २३. सिद्धत भाव- (सिद्ध करना, साधना, सिद्धि के भाव) कर्मों को करने से क्या लाभ है, अपने ममल स्वभाव को साधो, उसकी साधना करो तो क्षय करने की साधना कर रहे हो परंत अपने सिद्ध स्वरूप को साधो. जो सारे कर्म विला जाते हैं। तीन लोक में सार वस्तु मोक्ष है, जहां आत्मा अपना तीनों प्रकार के कर्मों से मुक्त शुद्ध सिद्ध है, इसी से सब कर्म क्षय होते हैं। स्वभाव पूर्णपने प्रगट कर लेता है, कर्म बंध से मुक्त हो जाता है और परमानंद आत्मा भिन्न है, कर्मादि भिन्न हैं, ऐसा मनन करने से व ऐसा ध्यान का निरंतर भोग करता है । निश्चय रत्नत्रय ही तीन लोक में सार है, अपने करने से ही आत्मा कर्म रहित होता है यही मुक्ति मार्ग है । चैतन्यमय एक भाव शुद्धात्मा का ही सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान व उसी में आचरण यही मोक्ष का उपाय ही आत्मा का निज भाव है। शेष सर्व रागादि भाव निश्चय से पर पुद्गल है। निश्चय रत्नत्रय रूप स्व समय स्वरूप संवेदन या आत्मानुभव है । जैसा कर्मोदय जन्य हैं इसलिये एक चैतन्यमय भाव को ही ग्रहण करना चाहिये, कार्य या साध्य होता है वैसा ही उसका कारण या साधन होता है । इस । शेष सर्व परभावों का त्याग करना चाहिये। शुद्ध भाव में चलने वाले मोक्षार्थी आत्मानुभव के लिये जो बाहरी साधन ज्ञान, ध्यान, व्रत, संयम आदि हैं वह साधक को सदा ही मैं एक शुद्ध चैतन्यमय परम ज्योति स्वरूप सिद्ध परमात्मा मात्र व्यवहार हैं निमित्त हैं। हूं इसके सिवाय जो नाना प्रकार के भाव प्रगट होते हैं, वे मेरे शुद्ध स्वभाव से आत्मा का ज्ञान स्वभाव में वर्तना, सदा आत्मज्ञान में रहना ही मोक्ष भिन्न सब परद्रव्य ही हैं यह आराधन निरंतर वर्तता है, ऐसी संभाल और का साधन है क्योंकि यहां उपयोग एक ही आत्मतत्त्व के स्वभाव में तन्मय साधना करने से सब कर्म क्षय होते हैं, सिद्ध परमपद मुक्ति की प्राप्ति होती है। है। शुभ क्रियाकांड में वर्तना और मात्र शास्त्र ज्ञान में लगे रहना, वह मोक्ष २४. गर्म भाव, २५. सुनिय भावका कारण नहीं है क्योंकि अन्य द्रव्य के स्वभाव पर ही लक्ष्य है, आत्मा पर गमंच अगर्म दिस्टं, गमयं च अनंतनंत ससरुवं । ध्यान नहीं है। सुनियंच मुक्ति मगं, सुनियंचन्यान कम्मगलियंच॥ ५०९॥ जो कोई आत्मा के ध्रुव स्वभाव को छोड़कर पर द्रव्य में या पर पर्याय में अन्वयार्थ - (गमं च अगमं दिस्ट) अगम को देखने का प्रयास कर रहे रति करता है वह मिथ्यादृष्टि है और मिथ्या श्रद्धान से परिणमता हुआ कर्मों का बंध करता है। हो (गमयं च अनंत नंत ससरूवं) परंतु अपना अनंतानंत चतुष्टयमयी स्वरूप २२. पोषतु भाव, २३. सिखंतु भाव तो प्राप्त ही है, इसी को देखो (सुनियं च मुक्ति मग्गं) मोक्षमार्ग की चर्चा सुन रहे हो (सुनियं च न्यान कम्म गलियं च) अपने ज्ञान स्वभाव की चर्चा सुनो पोपंतुन्यान विन्यानं, पोति विन्यान कम्म विपनं च। जिससे कर्म गल जाते हैं। सिद्धंतु कम्म विपनं, सिद्धति कम्म तिविहि मुक्कं च॥५०८॥ विशेषार्थ - २४. गर्म भाव - (प्राप्त करना, प्रयास करने का भाव) अन्वयार्थ - (पोषंतु न्यान विन्यानं) भेदविज्ञान को पोस रहे हो, पाल ... अगम को देखने का प्रयास कर रहे हो, अपना अनंतानंत चतुष्टयमयी स्वरूप ************ kkkkk
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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