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________________ E 长长长长长长兴 F ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी प्रश्न - इसके लिये करना क्या चाहिये? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंएवं भाव स उत्तं, अप्पं परिनाम मुक्ति सहकारं । सुयं सुभावं दिहं, सूषम परिनाम कम्म संविपनं ॥ ४८९ ॥ अन्वयार्थ - (एयं भाव स उत्तं) इस प्रकार के भाव कहते हैं (अप्पं परिनाम मुक्ति सहकारं) आत्म भावना ही मुक्ति में सहकारी है (सुयं सुभावं दिटुं) स्वयं के स्वभाव को देखना (सुषम परिनाम कम्म संषिपन) ऐसे सूक्ष्म आत्म परिणाम से कर्म क्षय होते हैं। विशेषार्थ - मुक्त होने के लिये आत्म भावना ही सहकारी है। सब शुभाशुभ भावों से उपयोग को हटाकर अपने आत्म स्वभाव में लगाना, आत्म स्वभाव को देखना, यह सूक्ष्म परिणामों से ही कर्म क्षय होते हैं। निश्चय रत्नत्रय की एकता रूप आत्मा का अनुभव गम्य अभेद निर्विकल्प शुद्धोपयोग एक ऐसा भाव है जो अति सूक्ष्म है। मन, वचन, काय से परे निज स्वभाव की साधना से ही कर्मों का क्षय होता है तब यही भाव कारण समयसार रूप है, यही शुद्धोपयोग भाव सदा बना रहे, यही भाव कार्य समयसार रूप है। इस एक ही भाव शुद्धोपयोग से सिद्ध पद मुक्ति की प्राप्ति होती है। जब आत्मा शुद्ध स्वभाव में रमण करती है तब उसके सारे कर्म क्षय हो जाते हैं । निज स्वभाव में रमण करना ही मोक्ष का मार्ग है। इसी की विशेषता में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंन्यान सहावं अप्पा, न्यानं विन्यान न्यान संजुत्तं । दंसन दर्स अनन्तं, अवगाहनं अप्प सुद्ध परमप्पं ॥ ४९० ॥ अप्पं च वेदियत्वं, अप्पं च चेयन सहाव न्यानं च। आनन्दं परमानन्दं,अप्प सहावेन मुक्ति गमनं च ॥ ४९१ ॥ अन्वयार्थ - (न्यान सहावं अप्पा) आत्मा ज्ञान स्वभावी है (न्यानं विन्यान न्यान संजुत्तं) वही आत्मा भेदविज्ञान तथा आत्मानुभव रूप ज्ञान सहित है (दंसन दर्स अनन्तं) वही आत्मा अनंत दर्शन रूप देखने वाली है (अवगाहनं अप्प सुद्ध परमप्पं) ऐसे अपने आत्म स्वरूप में अवगाहन करो तो गाथा-४८९-४९१ -H-28-34 यही शुद्ध परमात्मा है। (अप्पं च वेदियत्वं) एक आत्मा ही अनुभव करने योग्य है (अप्पं च चेयन सहाव न्यानं च) आत्मा ही अनुभव करने वाला चेतन स्वभावधारी है व जानने वाला ज्ञान स्वभावधारी है (आनन्दं परमानन्द) आत्मा ही आनंद परमानंद स्वभाव वाला है (अप्प सहावेन मुक्ति गमनं च) आत्म स्वभाव से ही * मुक्ति की प्राप्ति होती है। विशेषार्थ-आत्मा ज्ञान स्वभावी है, भेदविज्ञान के द्वारा जो ऐसे अपने आत्म स्वरूप का अनुभव आत्मज्ञान करता है। अपने आत्म स्वभाव को अनंत चतुष्ट स्वरूप देखता है और अपने आत्म स्वभाव में ही अवगाहन करता है अर्थात् निरंतर उसी में मगन रहता है, वह आत्मा से शुद्ध परमात्मा हो जाता है। आत्मा ही अनुभव करने योग्य है, आत्मा ही चेतन स्वभाव का धारी है, ज्ञान स्वभाव वाला है, आत्मा ही आनंद परमानंद स्वरूप है, ऐसे अपने आत्म 6 स्वरूप की रमणता से मुक्ति की प्राप्ति होती है। शरीर आदि अपने आत्मा से भिन्न कहे गये हैं, वे पदार्थ आत्मा नहीं हो सकते व उन रूप आत्मा नहीं हो सकता, ऐसा समझकर हे भव्य ! तू अपने को आत्मा जान, यथार्थ आत्म स्वरूप का बोध कर। आत्मा का स्वभाव सर्व अन्य आत्माओं से व पुद्गल पांच द्रव्यों से व 8 आठ कर्मों से तथा आठ कर्मों के फल से व सर्व रागादि भावों से निराला परम शुद्ध है। भेदविज्ञान की कला से आत्मा पर से बिल्कुल भिन्न जानने में आता है, भेदविज्ञान की शक्ति से ही भ्रमभाव का नाश होता है। हंस, दूध को पानी से भिन्न ग्रहण करता है, किसान चावल को भसी से अलग जानता है। स्वर्ण माला में सराफ स्वर्ण को धागे आदि से भिन्न समझता है, बनी हुई सब्जी में समझदार को लवण का स्वाद भी सब्जी से भिन्न समझ में आता है। चतुर वैद्य एक गुटिका में सर्व औषधियों को अलग-अलग समझता है, इसी तरह ज्ञानी अंतरात्मा आत्मा को सर्व देहादि पर द्रव्यों से भिन्न जानता है। आत्मा वास्तव में अनुभव गम्य है । मन से इसका यथार्थ चिंतवन नहीं हो सकता; वचनों से इसका वर्णन नहीं हो सकता, शरीर से इसका स्पर्श नहीं हो सकता क्योंकि मन का काम क्रम से किसी स्वरूप का विचार करना २६९ E-E-E E- KHELK HE-
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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