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*** ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी खूब पुष्ट करना चाहिये अर्थात् उसे क्षायिक सम्यक्त्व रूप करना चाहिये
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निर्ग्रन्थ रत्नत्रय ही उपदेश शुद्ध सार है, वही लोकोत्तर और अत्यंत * विशुद्ध है वही मोक्ष का मार्ग है इसलिये इस प्रकार की श्रद्धा करनी चाहिये और उस श्रद्धा को पुष्ट करना चाहिये।
आत्मा के द्वारा आत्मा में आत्मा का पर के आकार रहित रूप से संवेदन होता है, उसे ही स्वसंवेदन कहते हैं। जो स्वसंवेदन से सिद्ध है उसे अनुभव सिद्ध कहते है।
कर्म से और कर्म के कार्य क्रोधादि भावों से भिन्न चैतन्य स्वरूप आत्मा को नित्य भाना चाहिये, उससे नित्य आनंदमय मोक्ष पद की प्राप्ति होती है।
प्रमाद को रोकने के लिये उत्साह को बढ़ाना चाहिये।
सच्चा धर्म वही है जो राग-द्वेष से रहित पूर्ण ज्ञानी सर्वज्ञ के द्वारा कहा गया है। निश्चय से वस्तु का जो स्वभाव है वही धर्म है। जैसे-आत्मा का चैतन्य स्वभाव ही उसका धर्म है। किंतु संसार अवस्था में वह चैतन्य स्वभाव तिरोहित होकर गति, इंद्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में चौदह गुणस्थानों के द्वारा विभाजित होकर नाना रूप हो गया है। द्रव्यदृष्टि से वह एक ही है, इसी से भगवान जिनेन्द्र देव ने जो धर्मोपदेश दिया है वह व्यवहार और निश्चय से व्यवस्थापित है।
जो साधक अपनी इंद्रियों और मन के प्रसार को रोकता है तथा आत्मा के द्वारा आत्मा में आत्मा का अनुभव करके कृत कृत्य अवस्था को प्राप्त करता है, उसको प्रथम जीवन्मुक्ति पश्चात् परममुक्ति प्राप्त होती है।
मन के एकाग्र होने से स्वसंवेदन के द्वारा आत्मा की अनुभूति होती है, उसी आत्मानुभूति से जीवन्मुक्ति दशा और अंत में परम मुक्ति प्राप्त होती है।
प्रश्न- यह सिद्ध पद कैसे प्राप्त होता है?
समाधान - जो संसारी आत्मा शुद्ध आत्मा का अनुभव पूर्वक ध्यान * करता है, मुनिपद में अंतर बाहर निर्ग्रन्थ होकर पहले धर्म ध्यान फिर शुक्ल
ध्यान को ध्याता है, वह शुक्लध्यान के प्रताप से पहले अरिहंत होता है फिर * सर्वकर्म मल जलाकर सिद्ध होता है। ऊर्ध्वगमन स्वभाव से लोक के अग्र में * जाकर सिद्ध आत्मा ठहरता है। सर्व ही सिद्ध उस सिद्ध क्षेत्र में अपनी-अपनी
सत्ता में परमानंद में मगन रहते हैं। वे पूर्ण मुक्त शद्ध वीतराग हैं इससे फिर
गाथा-४८८HHH--- कभी कर्मबंध से बंधते नहीं हैं वे सर्व संसार के क्लेशों से मुक्त रहते हैं वे ही निर्वाण प्राप्त हैं।
सिद्धों के समान जो कोई मुमुक्षु अपने आत्मा को निश्चय से शुद्ध आत्म तत्त्व मानकर व राग-द्वेष त्यागकर उसी निज स्वरूप में मगन हो जाता है, वही एक दिन शुद्ध सिद्ध परमात्मा हो जाता है।
पांचवां- मोक्षमार्ग अधिकार प्रश्न- यह सिद्ध पद मुक्ति की प्राप्ति कैसे होती?
समाधान- संसारी प्राणी इच्छा व तुष्णा के वशीभूत होकर मन से किन्हीं कार्यों को करने का संकल्प या विचार करते हैं, वचनों से आज्ञा देते हैं, काय से उद्यम व आरंभ करते हैं, कार्य सिद्ध होने पर संतोष, प्रसन्नता व कार्य सिद्ध न होने पर विषाद, द्वेष करते हैं। किसी पर राजी होते हैं, किसी पर नाराज होते हैं, यह सब कर्म बंध के कारण हैं और इन्हीं से जीव संसार में रुलता है।
तारण पंथ (मुक्ति मार्ग) में ज्ञान पूर्वक पांच सोपान से मुक्ति सिद्ध पद की प्राप्ति होती है
१.भेदज्ञान, २. तत्व निर्णय, ३. वस्तु स्वरूप,४.द्रव्य दृष्टि, ५.ममल स्वभाव, इनकी साधना कर अनुभव से सिद्ध करने पर सिद्ध पद प्राप्त होता है।
जो जीव भेदज्ञान पूर्वक अपने आत्म स्वरूप को जान लेता है तथा जिसके भीतर मोह का संबंध नहीं रहता,जो मन, वचन, काय से कोई प्रकार की इच्छा या कोई प्रयत्न नहीं करता, जिसको कोई राग-द्वेष आदि विकार तथा संतोष-असंतोष नहीं होता, कोई सुख-दु:ख नहीं होता, जो संसार के किसी प्रपंच जाल में नहीं पड़ता, अपने आत्म स्वरुप की साधना में संलग्न रहता है, जिसने सर्व कर्मों को दूर करके व सर्व देहादि पर द्रव्यों का संयोग हटाकर अपने ज्ञानमय आत्मा को पाया है वही परमात्मा है।
जिसे सर्व ही सिद्ध व संसारी आत्मायें एक समान परम निर्मल वीतराग ज्ञानानंदमय दिखती हैं, इस दृष्टि को द्रव्यदृष्टि कहते हैं । इस दृष्टि से देखने का अभ्यास करने वाले के भावों में समभाव का साम्राज्य हो जाता है। राग-द्वेष, मोह का विकार मिट जाता है। इसी समभाव में एकाग्र होना ही
ध्यान है। यही ध्यान आग्नि है जिससे कर्म के बंधन जल जाते हैं और यह २६८ आत्मा शीघ्र ही मुक्त हो जाता है।
关多层多层司朵》卷卷
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