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________________ 出各是多层司法力答卷市 MAHAR * श्री उपदेश शुद्ध सार जी गाथा-४८८HHHHH प्रश्न - सर्वज्ञ की श्रद्धा में तो पराधीनता है, इसमें स्वाधीनता, सिद्धं सहाव उत्त, सिद्धं मुक्ति भाव सुद्ध सुपएस। पुरुषार्थ क्या रहा? विन्यान सहावं उत्त, न्यानं सभाव जान ममलं च ॥४८८॥ समाधान - सम्यक्दृष्टि धर्मात्मा अपने सम्यक्ज्ञान से यह जानता है अन्वयार्थ - (सिद्धं सहाव उत्तं) सिद्ध स्वभाव को कहते हैं (सिद्ध* कि सर्वज्ञ भगवान ने अपने ज्ञान में जो जाना है, उसी प्रकार प्रत्येक वस्तु = मुक्ति भाव सुद्ध सुपएस) सिद्ध परमात्मा ने मुक्ति भाव पा लिया वह अपने क्रमबद्ध परिणमित होती है, दूसरा उसका कर्ता नहीं है। ऐसा अपने अनुभव शुद्ध स्वप्रदेशों में स्थित हो गये (विन्यान सहावं उत्तं) यह भेदविज्ञान की से सिद्ध किया है, यहां औपचारिक श्रद्धा काम नहीं देती, जिसे स्वयं की महिमा कही है जिससे (न्यानं सभाव जान ममलं च) अपने ज्ञान स्वभाव को अनुभूति होती है वही यह निर्णय स्वीकार करता है। जान लिया जो ममल पूर्ण शुद्ध है। मेरी केवलज्ञान पर्याय मेरे स्वद्रव्य में से ही प्रगट होगी, ऐसी सम्यक् विशेषार्थ -भेदविज्ञान के द्वारा अपने ममल स्वभाव को जानकर भावना से उसका ज्ञान स्व सन्मुख होकर स्वभाव में एकाग्र होता है और ज्ञाता जिन्होंने अपने ज्ञान स्वभाव की साधना की, वे सिद्ध परमात्मा हो गये । जो शक्ति प्रति पर्याय में निर्मल होती जाती है तथा विकारी पर्याय क्रमश: दूर सिद्ध परमात्मा मुक्त हुए वह अपने शुद्ध भाव, परम पारिणामिक भाव तथा होती जाती है। शुद्ध प्रदेश में प्रतिष्ठित हो गये। कौन कहता है कि इसमें पराधीनता है, पुरुषार्थ नहीं है ? ऐसे स्वभाव जो साध्य को सिद्ध कर सके उसे सिद्ध कहते हैं। मोक्ष भाव साध्य था में जो नि:शंक है वह सम्यक्दृष्टि और इस स्वभाव में जो तनिक भी संदेह का उसे सिद्धों ने सिद्ध कर लिया, उनकी आत्मा में कोई कर्म पुद्गल शेष नहीं वेदन करता है शंका करता है वह मिथ्यादृष्टि है। उसे सर्वज्ञ के ज्ञान की और रहा, वह पूर्ण शुद्ध मुक्त शुद्ध प्रदेशमय हो गये । जो साधक अपने ममल अपने ज्ञाता स्वभाव की श्रद्धा नहीं है। स्वभाव की साधना करते हैं, वह भी ऐसे सिद्ध परमपद को पाते हैं । उपदेश इस सम्यक्दृष्टि जीव की भावना तो देखो, वह स्वभाव के आश्रय से ही शुद्ध सार का मूल आधार ही सिद्ध परम पद पाना है। साधक दशा का प्रारंभ करता है और स्वभाव में ही जाकर पूर्ण करता है। संयोगी पर्याय, भावक भाव, शरीरादि से जो अपने को भिन्न ममल केवलज्ञान संपूर्ण तथा निज में ही समाविष्ट हो जाता है। साधक धर्मात्मा स्वभाव रूप स्वीकार करता है वह साधक सिद्ध पद को पाता है। बंध के कारणों का अभाव होने से नवीन कर्मों का अभाव हो जाता अपने में ही समाविष्ट होना चाहता है। उसने बाहर से न तो कहीं से प्रारंभ है और निर्जरा के कारण मिलने पर संचित कमों का अभाव हो जाता किया है और न बाह्य में कहीं रुकने वाला है। आत्मा का मार्ग आत्मा में से है, इस तरह समस्त कमाँ से छूट जाने को मोक्ष कहते हैं। निकलकर आत्मा में ही समाविष्ट हो जाता है। आत्मा का जो परिणाम समस्त कमाँ के क्षय में हेतु है उसे भाव इस बात की समझ में आत्मा के मोक्ष का उपाय निहित है इसलिये इस मोक्ष जानो और आत्मा से समस्त कमाँ का पृथक् होना द्रव्य मोक्ष है। बात को खूब विश्लेषण करके समझना चाहिये, सर्वज्ञ के निर्णय पूर्वक स्पष्ट ममल स्वभाव की साधना का उद्देश्य और फल मोक्ष सिद्ध पद को करके जानना चाहिये, परम सत् को ढांकना नहीं चाहिये किंतु ऊहापोह पाना है। करके बराबर अपने अनुभव से निश्चय करना चाहिये । सत्य में किसी की मुमुक्षु को यह प्रतीयमान निर्ग्रन्थ मार्ग ही सकल आगम का सार है, लज्जा नहीं होती, यह तो वस्तु स्वरूप है। सकल जगत में उत्कृष्ट है । अत्यंत शुद्ध है, अमृत का, जीवन्मुक्ति और परम प्रश्न-इसका उद्देश्य और फल क्या है? मुक्ति का मार्ग है। इस प्रकार की तत्त्व श्रद्धा को अंत:करण में समाविष्ट करके इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं उसे दोषों के त्याग और दोषों से विपरीत गुणों तथा विनय की प्राप्ति के द्वारा २६७ M2-31-1-1-1-1-1-18** ------------ HH---
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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