SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 與萃與萃萃些除些與 *-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी है, वचनों से एक ही गुण या स्वभाव एक साथ कहा जा सकता है । शरीर मूर्तिक स्थूल द्रव्य को ही स्पर्श कर सकता है, जबकि आत्मा अनंतगुण व पर्यायों का अखंड पिंड है केवल अनुभव में ही इसका स्वरूप आ सकता है। इस आत्मा का संबंध किसी पर वस्तु से नहीं है। यह आत्मा अपने ही ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुणों का स्वामी है। आत्मा में ही सम्यक्दर्शन है, आत्मा में ही सम्यक्ज्ञान है, आत्मा में ही सम्यक्चारित्र है, आत्मा में ही सम्यक् तप, संयम और त्याग है, आत्मा में ही संवर तत्त्व है, आत्मा में ही निर्जरा है, आत्मा में ही मोक्ष है। जिसने अपने उपयोग को आत्मा में जोड़ दिया उसने मोक्ष मार्ग पा लिया। आत्मा आप ही से आप में क्रीड़ा अवगाहन करता हुआ, शनै: शनै: शुद्ध होता हुआ परमात्मा हो जाता है। आत्मा ही आनंद परमानंदमयी परमात्मा है । जितनी मन, वचन, काय की शुभ व अशुभ क्रियायें हैं वे सब पर हैं, आत्मा नहीं हैं। चौदह गुणस्थान की सीढ़ियां भी आत्मा का निज स्वभाव नहीं हैं। आत्मा परम पारिणामिक एक जीवत्व भाव का धनी है, जिसका प्रकाश कर्म रहित सिद्ध गति में होता है, जहां सिद्धत्व भाव है। आत्मा को पहिचानने वाला अंतरात्मा आत्म रसिक हो जाता है, आत्मानंद का प्रेमी हो जाता है, उसके भीतर से विषय भोग जनित सुख की श्रद्धा मिट जाती है । वह एक आत्मानुभव को ही अपना कार्य समझता है, उसके सिवाय जो व्यवहार में गृहस्थ श्रावक या मुनि अंतरात्मा को कर्तव्य करना पड़ता है, वह सब मोहनीय कर्म के उदय की प्रेरणा से होता है इसलिये ज्ञानी अंतरात्मा सर्व ही धर्म अर्थ काम पुरुषार्थ की चेष्टा को आत्मा का स्वाभाविक धर्म नहीं मानता है। आत्मा तो स्वभाव से सर्व चेष्टा रहित निश्चल परम कृतकृत्य है । इस तरह आत्मा को केवल आत्मा रूप ही टंकोत्कीर्ण ज्ञाता दृष्टा परमानंद मय समझकर उसी में रमण करने से मुक्ति की प्राप्ति होती है । प्रश्न - इसमें देव, गुरु, आदि का श्रद्धान सहयोगी, आवश्यक है या नहीं ? - इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं २७० गाथा ४९२, ४९३ ॥ अप्पं च अप्प तारं नाव विषेसं च पार गच्छेति । , अप्पं ममल सरू, कम्मं विपिऊन तिविहि जोएन ।। ४९२ ।। एकं जिनं सरूवं, सुयं विपनं च कम्म बंधानं । अनन्त चतुस्टय सहियं, ममल सहावेन सिद्धि संपत्तं ।। ४९३ ॥ अन्वयार्थ - (अप्पं च अप्प तारं) यह आत्मा आप ही अपने को तारने वाला है (नाव विषेसं च पार गच्छंति) जैसे कोई नौका विशेष आप से आप ही समुद्र के पार जाती है (अप्पं ममल सरूवं) आत्मा ममल स्वभावी है (कम्मं षिपिऊन तिविहि जोएन) तीनों प्रकार के योग से कर्म क्षय होते हैं। (एकं जिनं सरूवं) जिन स्वरूप एक ही तरह का है अर्थात् "एक जिन को स्वरूप सोई चौबीस जिन को स्वरूप, सोई एक सौ उनचास चौबीसी को" और वही समस्त आत्माओं का है (सुयं षिपनं च कम्म बंधानं) जिन स्वरूप की साधना से कर्मों के बंध स्वयं क्षय हो जाते हैं (अनन्त चतुस्टय सहियं) जिन स्वभाव की साधना से ही अनंत चतुष्टय स्वरूप केवलज्ञान प्रगट होता है (ममल सहावेन सिद्धि संपत्तं ) ममल स्वभाव की साधना से ही सिद्धि की संपत्ति अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है। विशेषार्थ यह आत्मा आप ही अपने को तारने वाला है, इसमें पर का अवलंबन सहकारी नहीं है, जैसे- कोई नौका अपनी विशेषता से ही आपसे आप ही समुद्र के पार जाती है, उसी प्रकार आत्मा अपनी विशेषता से स्वयं आप ही अपने से मुक्ति पाता है। आत्मा का एक ममल स्वभाव ही ऐसा महिमामय है, जिसकी त्रिविध योग की साधना से सारे कर्म क्षय हो जाते हैं । - जिन स्वरूप या ममल स्वभाव या ध्रुव स्वभाव, ज्ञान स्वभाव कुछ भी कहो, यह समस्त आत्माओं का एक सा ही होता है। जिन स्वभाव की साधना से कर्मबंध अपने आप क्षय होते हैं। घातिया कर्मों के क्षय होने पर अनंत चतुष्टय प्रगट हो जाते हैं और यह जिन स्वरूप ममल स्वभाव की पूर्ण स्थिति से सिद्धि की संपत्ति अर्थात् मोक्ष प्राप्त होता है। पर का अवलंबन पराधीनता का कारण है। जब तक जीव को अपने सत्स्वरूप का सम्यक् श्रद्धान ज्ञान न हो तब तक सच्चे देव, गुरु सहकारी हैं, सत्स्वरूप का बोध होने में निमित्त कारण हैं परंतु उनके ही श्रद्धान मात्र से, पूजा भक्ति से मुक्ति मिलने वाली नहीं है। *
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy