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******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
होता है। दूसरे नि:कांक्षित अंग से विषयों के प्रति अनांकांक्षा हो जाने से तविषयक राग का अभाव होता है। तीसरे निर्विचिकित्सा अंग से अनिष्ट पदार्थों के प्रति घृणा या तिरस्कार का परिहार होने से तविषयक दोष का अभाव हो जाता है। चौथे अमूढ दृष्टि अंग के द्वारा गृहीत मिथ्यात्व के साधनों का परिहार हो जाने से उसमें मोह भाव का अभाव हो जाता है। इस प्रकार ज्ञानी के राग-द्वेष, मोह का अभाव होने से बंध नहीं होता तथा पूर्वकृत कर्मोदय क्षय होते जाते हैं।
चार अंगों की साधना से सम्यक दृष्टि जीव का आंतरिक व्यक्तित्व संस्कारित हो जाता है। अन्य जीवों के प्रति उसका व्यवहार शेष चार अंगों के द्वारा परिष्कृत होता है।
उपगूहन अंग - जो अपने संपूर्ण गुणों को अपने भीतर सुरक्षित रखे, उपगूहन छिपाने को कहते हैं । ज्ञानी अपने गुणों को बाहरी विकारी भावों की हवा नहीं लगने देता, अपने भीतर अंतरगर्भगृह में ही छिपाकर रखता है यही परमार्थत: उपगूहन है । उपगूहन का दूसरा नाम उपवृंहण है जिसका अर्थ बढ़ाना है। ज्ञानी निरंतर अपने गुणों की वृद्धि करता है, यही उसका उपवृंहण नाम का वास्तविक गुण है । व्यवहारत: उपगूहन का अर्थ इस प्रकार है-धर्मात्मा गुणी पुरुषों में यदि कोई दोष दिखाई दे जावे तो उसका प्रचार-प्रसार नहीं करना, बल्कि उनमें यह दोष दूर हों तथा गुण बढ़े ऐसी सहायता करना।
पवित्र जिनधर्म में अज्ञानता अथवा अशक्तता से उत्पन्न हुई निन्दा को योग्य रीति से दूर करना तथा अपने गुणों को व दूसरों के दोषों को ढांकना सो उपगूहन है पुन: अपनी तथा अन्य जीवों की सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र शक्ति को बढ़ाना यही उपवृंहण अंग है। जो आत्मा को शुद्ध स्वरूप में युक्त करे, आत्मा की शक्ति बढ़ाये और अन्य धर्मों को गौण करे यह उपगूहन अंग है, इससे पूर्व कृत कर्म क्षय हो जाते हैं।
६. स्थितिकरण अंगस्थितिकरन स उत्त, न्यानीन्यानं च अन्मोय समयं च। पज्जा नहु पिच्छं, स्थिति अंगं च कम्म विलयति ॥ ४८२॥
अन्वयार्थ - (स्थितिकरन स उत्तं) स्थितिकरण अंग उसे कहते हैं (न्यानी न्यानं च अन्मोय समयं च) ज्ञानी अपने ज्ञान स्वभाव शुद्धात्मा में ही
गाथा-४८२-४८४********** स्थित रहते हैं (पज्जाव नहु पिच्छं) पर्याय की तरफ देखते भी नहीं हैं (स्थिति अंगं च कम्म विलयंति) इस स्थिति अंग से सब कर्म विला जाते हैं।
विशेषार्थ - अपने स्वरूप में स्थित रहना ही स्थितिकरण अंग है। स्वाश्रय छोड़कर पराश्रय करना या पर्याय को देखना ही विचलित होना है। स्वयं अपने ज्ञायक स्वभाव से विचलित न होकर उसी में स्थित रहना ही निश्चय से स्थितिकरण अंग है।
धर्म, धर्मात्मा के आश्रय से ही चलता है, धर्मात्मा के अपवाद से धर्म का अपवाद हो जाता है अत: धर्म के मार्ग को पवित्र बनाये रखने के लिये धर्मात्मा का स्थितिकरण आवश्यक है। उपगहन अंग की पूर्ति स्थितिकरण अंग से ही होती है, यह उसका व्यवहारिक रूप है।
आप स्वयं या अन्य पुरुष कर्म के उदय वश श्रद्धान ज्ञान चारित्र से डिगते या छूटते हों तो अपने को व उन्हें दृढ़ तथा स्थिर करना स्थितिकरण अंग है।
७. वात्सल्य अंगविन्यानं वाच्छल्लं, न्यानं विन्यान न्यान सहकार। दंसन न्यान सुसमय, ममल सहावेन चरन संजुत्तं ॥४८३॥ चरनंपि सुद्ध चरनं, संजम चरनस्य सुद्ध ससहावं । विलयंतिकममलय, वाछिल अंगच विन्यानन्यान अन्मोय॥४८४॥
अन्वयार्थ- (विन्यानं वाच्छल्लं) विज्ञान घन रहना ही वात्सल्य अंग है (न्यानं विन्यान न्यान सहकार) ज्ञान से विज्ञान और विज्ञान से केवलज्ञान (दंसन न्यान सुसमयं) अपना आत्मा ही सम्यकदर्शन है, अपना आत्मा ही सम्यज्ञान है (ममल सहावेन चरन संजुत्तं) अपने ममल स्वभाव में लीन रहना ही सम्यक्चारित्र है।
(चरनपि सुद्ध चरनं) चारित्र ही शद्ध आत्मा में चर्या रूप है (संजम चरनस्य सुद्ध ससहावं) अपने शुद्ध स्वभाव में तिष्ठना ही संयमाचरण है (विलयंति कम मलयं) जिससे कर्म मल विला जाते हैं (वाछिल अंगं च विन्यान न्यान अन्मोयं) विज्ञान घन स्वभाव का आलंबन ही वात्सल्य अंग है।
विशेषार्थ - अपने सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र गुणों की प्राप्ति के प्रति अनुराग वात्सल्य अंग है। मैं विज्ञान घन हूं, इसका उत्साह प्रेम स्नेह होना ही
*KHELKER
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