________________
9-5-19-5
*****-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
未必容許
.
वात्सल्य है। ज्ञान से विज्ञान, विज्ञान से केवलज्ञान प्रगट होता है। आत्मा ही सम्यक्दर्शन है, आत्मा ही सम्यक्ज्ञान है और ममल स्वभाव में में रहना ही सम्यक्चारित्र है इसी से सारे कर्म मल क्षय होते हैं। अपने विज्ञान घन स्वभाव का आश्रय ही वात्सल्य अंग है।
वत्स, बालक को कहते हैं, बालक के प्रति किसी को द्वेष नहीं होता.न उसका कोई अपवाद करता है, उसके गुण प्रगट हों, इस अभिप्राय से उसे बढ़ावा ही दिया जाता है, यह सामान्य लोक व्यवहार है। इसी प्रकार धर्मी धर्मात्मा के प्रति द्वेष न हो, उसका अपवाद न हो, उसमें गुण प्रगट हों इसलिये सम्यक्त्वी उसे बढ़ावा ही देते हैं यही व्यवहारिक वात्सल्य अंग है।
जो अपने स्वरूप के प्रति विशेष अनुराग रखता है यही निश्चय वात्सल्य अंग है। निश्चय से मेरा आत्मा ही ज्ञान है, मेरा आत्मा ही दर्शन और चारित्र है, मेरा आत्मा ही प्रत्याख्यान है, मेरा आत्मा ही संवर और योग है क्योंकि शुद्ध आत्मा के ज्ञानादि का आश्रयत्व ऐकांतिक है।
आत्मा जब ज्ञानी हुआ तब उसने वस्तु का ऐसा स्वभाव जाना कि आत्मा स्वयं तो शुद्ध ही है । द्रव्यदृष्टि से अपरिणमन स्वरूप है। पर्याय दृष्टि से परद्रव्य के निमित्त से रागादि रूप परिणमित होता है इसलिये अब ज्ञानी उन भावों का कर्ता नहीं होता है, जो उदय में आते हैं उनका ज्ञाता ही होता है, इससे कर्म मल विला जाते हैं, क्षय हो जाते हैं । जो मोक्षमार्ग का साधक रत्नत्रय धर्म में परम प्रेम करता है, यही वात्सल्य अंग है।
८. प्रभावना अंगप्रभावना सहाव उत्त, परम तत्वं च भाव ममलं च। अप्या परमप्पानं, ममल सहावेन मुक्ति गमनं च ।। ४८५ ॥
अन्वयार्थ - (प्रभावना सहाव उत्तं) प्रभावना स्वभाव कहते हैं (परम तत्वं च भाव ममलं च) परम तत्त्व और ममल भाव का उत्साह बहुमान होना ही प्रभावना अंग है (अप्पा परमप्पानं) आत्मा ही परमात्मा है (ममल सहावेन मुक्ति गमनं च) ममल स्वभाव से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है, ऐसा दृढ़ श्रद्धान विश्वास ही प्रभावना अंग है।
विशेषार्थ - अपनी आत्मा में दिन-दिन रत्नत्रय के तेज को बढ़ाते जाना, यह आत्म प्रभावना ही निश्चय से प्रभावना अंग है। आत्मा ही परमात्मा
गाथा-४८५-४८७----- - -- -- है, ममल स्वभाव से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है, ऐसे अपने परम तत्त्व ममल स्वभाव का बहुमान उत्साह उल्लास होना प्रभावना अंग है।
__ बाह्य प्रभावना के रूप में दया दान परोपकार करना, संयमित जीवन बनाना, धार्मिक कार्यों को उत्साह पूर्वक करना, प्रत्येक कार्य विवेक पूर्ण हो, धर्म की अभिवृद्धि कारक हो, स्वयं को प्रभावित करे तथा दूसरों को भी * प्रभावित करे, वह प्रभावना अंग है।
द्रव्यदृष्टि करके अखंड एक ज्ञायक रूप वस्तु को लक्ष्य में लेकर उसका अवलंबन करना, इस विधि के सिवाय मोक्ष प्राप्त करने की अन्य कोई विधि नहीं है।
ऐसा ज्ञानी अपनी आत्मानुभव की लहरों में ही मगन रहता है। पराश्रय की दीनता दूर हो जाती है, मोक्ष पथ उसकी दृष्टि में सहज ही दीखता है। उसका मन संसार की समस्त वासनाओं से दूर हो जाता है। अपने आत्मीय आंनद में आनंदित रहना, अपना ही स्वाभिमान बहुमान होना उमंग उत्साह में रहना प्रभावना अंग है।
प्रश्न-यह अष्ट अंग की विशेषता क्या है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंअंगं अस्ट स उत्त, निसंक भाव सयल विन्यानं । संक सहावं तिक्तं, निसंक अंग सयल संजुत्तं ॥ ४८६ ॥ निसंक संक विलयं, अंगं अस्टं च निम्मलं ममलं। इस्टं संजोय सुद्ध,कम्मं विपिऊन मुक्ति गमनं च ॥ ४८७ ॥
अन्वयार्थ - (अंगं अस्ट स उत्तं) अष्ट अंग की विशेषता कहते हैं (निसंक भाव सयल विन्यानं) भेदविज्ञान पूर्वक पूर्ण नि:शंक भाव हो जाना (संक सहावं तिक्त) शंका स्वभाव का छूट जाना (निसंक अंग सयल संजुत्तं) नि:शंकित अंग का परिपूर्ण हो जाना ही सब अंगों की प्रगटता है।
(निसंक संक विलयं) जहां सारी शंकायें विलाकर निशंक भाव हुआ वहां (अंगं अस्टं च निम्मलं ममलं) आठों अंग ही निर्मल और शुद्ध ममल हो गये (इस्टं संजोय सुद्ध) अपने इष्ट निज शुद्ध स्वभाव की दृढता, स्थिरता हुई (कम्मं षिपिऊन मुक्ति गमनं च) कर्म क्षय होकर मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है।
विशेषार्थ - अपने निज के निश्चय सम्यक्त्व संबंधी नि:शंकित भाव
31-3-8-3-6-
长长长长长
२६५
1-1-1-
2