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多层司朵》卷
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********* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
साधक के अंतर में पूर्ण शुद्ध परमात्म स्वरूप की प्रतीति रहती है। * जीव की सिद्ध परमात्म दशा पूर्ण रूप से निर्मल ममल होने से उसके बाद
कोई अन्य मर्यादा लांघने को शेष नहीं रहती है। सब जीवों का सिद्ध स्वभाव अपने आपमें परिपूर्ण है इस श्रद्धा विश्वास प्रतीति से समभाव में रहता है यही निर्विचिकित्सा अंग है।
४. अमूढ दृष्टि अंगमूड सहावं तिक्तं , मूढ निगोयं च पज्जाव संदिडं। पर सुभाव पज्जावं, मूढ दिट्ठी च गलिय परिनामं ॥ ४७८॥ अमूह अरूवरूर्व, दिहिं ममलंच न्यान विन्यानं । अमूढ दिट्टि भनियं, दंसन अंगं च कम्म विलयंति ॥ ४७९ ॥
अन्वयार्थ - (मूढ सहावं तिक्तं) मूढ स्वभाव को छोड़ना (मूढ निगोयं च पज्जाव संदिट्ठ) मूढ लोग पर्याय को ही देखते हैं इससे निगोद जाते हैं (पर सुभाव पज्जावं) पर्याय आत्मा से भिन्न पर स्वभाव रूप है (मूढ दिट्ठी च गलिय परिनाम) मूढ दृष्टि और उसके भाव गल जाने वाले हैं।
(अमूढ अरूव रूवं) अमूढदृष्टि अपने अरूपी स्वरूप को देखता है जो (दिढि ममलं च न्यान विन्यानं) ममल स्वभाव ज्ञान विज्ञानमयी है (अमूढ दिट्टि भनियं) अमूढ दृष्टि उसे कहते हैं (दंसन अंगं च कम्म विलयंति) जहां सम्यक्दर्शन के अंग प्रगट होकर कर्म विला जाते हैं।
विशेषार्थ - अतत्त्व में तत्त्व श्रद्धान करने की बुद्धि को मूढ दृष्टि कहते हैं, पर्याय दृष्टि ही मिथ्यादृष्टि है, वह मिथ्यात्व के उदय से होती है। जिनके यह मूढ दृष्टि नहीं है वे अमूढदृष्टि अंग युक्त सम्यक् दृष्टि हैं। मूढ दृष्टि पर पर्याय को ही देखता है, पर का लक्ष्य होने से अज्ञानियों द्वारा पूर्वापर विवेक बिना, गुण दोष के विचार रहित अनेक क्रियाकांड मिथ्या आडंबरों को धमे रूप
वर्णन किया गया है और उनके पूजने से लौकिक और पारमार्थिक कार्यों की * सिद्धि बताई है। अमूढ दृष्टि का धारक इन सबको असत्य जानता है और * उनमें धर्म रूप बुद्धि नहीं करता तथा अनेक प्रकार की लौकिक मूढताओं को निस्सार तथा खोटे फलों की उत्पादक जानकर व्यर्थ समझता है।
कुदेव या अदेव में देवबुद्धि, कुगुरु या अगुरु में गुरुबुद्धि तथा इनके निमित्त हिंसा करने में धर्म मानना आदि मूढदृष्टिपने को मिथ्यात्व समझकर *** * * * **
गाथा-४७८-४८१-------HIKHE दूर से ही तजता है यही सम्यक्त्वी का अमूढ दृष्टि अंग है।
सम्यक्दृष्टि के निजात्म तत्त्व से भिन्न सभी पंचेन्द्रिय विषयों पर मोह भाव नहीं है, यही उसकी मोह रहित दृष्टि है, इसे अमूढ दृष्टि अंग कहते हैं। अपने ज्ञान, दर्शन, चारित्र स्वभाव में रुचि है यही उसका पारमार्थिक रूप है * तथा समस्त पर पदार्थों में मोह का अभाव है। मिथ्यामार्ग और मिथ्या मार्गियों की मन वचन काय से सराहना न करना ही अमूढ दृष्टि अंग है।
मूढ दृष्टि बाह्य साधना का पक्ष करता है किंतु यहां तो पूर्ण स्वरूप के उत्साह की भावना है, जो आत्मा से हो सके ऐसी ज्ञान क्रिया या स्वरूप में रमणता का विचार है। इस प्रकार के अडिग निश्चल असीम विश्वास को स्वीकार तो करो। कभी सिंह शरीर के टुकड़े भी कर दे तो भी क्षोभ न हो,यहां तो असली साधक दशा की भावना है। जो स्वरूप में मूढ न हो, स्वरूप को यथार्थ ज्ञान विज्ञान मयी ममल स्वभाव ही जाने यही अमूढ दृष्टि अंग है और इससे ही पूर्व कर्म बंधोदय क्षय होते हैं।
५. उपग्रहन अंगउवगूहनं सभावं, न्यानी दोसं न दिस्यते भावं । पज्जावं पर विलयं, न्यानी अन्मोय दोष विलयंति ॥ ४८०॥ गुन रूर्व उवएस, न्यानी सभाव कम्म विपनं च। दोसं नन्त न पिच्छं, उवगूहन अन्मोय न्यान ममलं च ॥ ४८१ ॥
अन्वयार्थ - (उवगूहनं सभावं) उपगूहन स्वभाव वह होता है (न्यानी दोसं न दिस्यते भावं) ज्ञानी पर के दोषों पर दृष्टि नहीं देते (पज्जावं पर विलयं) पर और पर्याय की दृष्टि भी विला गई (न्यानी अन्मोय दोष विलयंति) ज्ञानी आत्मानंद में मगन है, इसी से सब दोष, कर्म विला जाते हैं।
(गुन रूवं उवएस) अपने आत्म स्वरूप के गुणों का उपदेश अपने लिये करते हैं (न्यानी सभाव कम्म विपनं च) ज्ञानी के अपने स्वभाव के प्रकाश से कर्म क्षय हो जाते हैं (दोसं नन्त न पिच्छं) वह किसी के दोष देखते ही नहीं हैं (उवगृहन अन्मोय न्यान ममलं च) उपगूहन स्वभाव के आलंबन से ममल ज्ञान स्वभाव प्रगट होता है।
विशेषार्थ - सम्यक्त्व के इन आठ अंगों में प्रथम निःशंकित अंग से आत्मा की अखंड श्रद्धा के रूप में जीव को सम्यक्त्व का यथार्थ स्वरूप प्राप्त
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