________________
गाथा-४७६,४७७HHH--
---
*****-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी के साधक जानकर आचरण करते हुए भी हेय जानता है।
जिसे आत्मरस का स्वाद आ गया है वह अन्य रस का आकांक्षी नहीं होता अत: सम्यक्दृष्टि संपूर्ण सांसारिक आकांक्षाओं से रहित आत्म रसास्वादी ॐ है, यही परमार्थ से उसका नि:कांक्षित अंग है। व्यवहारतः आत्म भिन्न पदार्थों
में ऐसा उसका विश्वास है कि उनका संयोग कर्माधीन है, नाशवान संयोग में सुख नहीं है, सुखाभास है। उन सांसारिक सुख भोगों में रागादि कषायों का आलम्बन रहने से वह पाप बंध के कारण हैं, जिनका फल अत्यंत दु:ख है। ऐसे दु:खांत फल वाले किसी भी सांसारिक सुख की उसे किंचित् भी वांछा नहीं होती यही नि:कांक्षित अंग वीतराग भाव है।
ज्ञानी सम्यक्दृष्टि जीव जो स्व संवेदन प्रत्यक्ष से अपने स्वरूप का दर्शन कर रहा है, अतीन्द्रिय आनंद का स्वाद ले रहा है और उसमें नि:शंक है। वह जानता है कि मैं ज्ञान स्वभावी धुव, ममल, अचल पदार्थ हूँ, मेरा निज का ज्ञान छिनने वाला नहीं है, वह बिगड़ने वाला भी नहीं है, न नाश होने वाला है। इसके सिवाय कोई दूसरा पदार्थ मेरी कुछ हानि कर सके, मेरी सत्ता में प्रवेश कर सके, या मुझ पर अपनी सत्ता जमा सके, ऐसा भी नहीं है।
मेरा ज्ञान दर्शन स्वभाव सदा से है, सदा रहेगा वह अचल है अर्थात् हीनाधिक भी नहीं हो सकता, ऐसे अपने ज्ञान स्वभाव के आलंबन से नि:कांक्षित रहता है।
३. निर्विचिकित्सा अंगविदि संसार सुभावं, विदं न पिच्छेह परिनाम विलयति। विदिच अनन्त अनिस्टं, विदंन पिच्छेइ कम्म विलयंति॥ ४७६ ॥ विदिन अप्प सहावं, दंसनन्यानं च अन्मोयममलं च। अन्यान विदि नहु पिच्छं, सुद्धं सहकार निव्विदं पिच्छं । ४७७॥
अन्वयार्थ - (विदि संसार सुभावं) घृणा करना यह संसारी प्राणियों * का स्वभाव है (विदं न पिच्छेइ परिनाम विलयंति) घृणा या ग्लानि न देखने से * इन परिणामों से छुटकारा हो जाता है (विदि च अनन्त अनिस्ट) घृणा के सर्व
ही भाव अनिष्टकारी हैं (विदं न पिच्छेइ कम्म विलयंति) जो घृणा भाव नहीं करता उसके सब कर्म विला जाते हैं।
(विदिं न अप्प सहावं) घृणा का भाव आत्मा का स्वभाव नहीं है (दंसन **** *** *
न्यानं च अन्मोय ममलं च) आत्मा तो दर्शन ज्ञान स्वभावी ममल स्वरूप है
और ऐसा ही सब जीवों का स्वभाव है (अन्यान विदिनहु पिच्छं) अज्ञान मयी घृणा भाव मत करो (सुद्धं सहकार निव्विदं पिच्छं) शुद्ध स्वरूप का सहकार करो, सबको एक समान समदृष्टि से देखना ही निर्विचिकित्सा अंग है।
विशेषार्थ- अपने को उत्तम गुण युक्त समझकर अपने आपको श्रेष्ठ मानने से दूसरों के प्रति जो तिरस्कार करने की बुद्धि पैदा होती है उसे
विचिकित्सा या ग्लानि कहते हैं । यह दोष मिथ्यात्व के उदय से होता है, है इसके बाह्य चिन्ह यह हैं-जो कोई पुरुष पाप के उदय से दु:खी हो व असाता
के उदय से ग्लान शरीर युक्त हो, रोगी हो, दरिद्री हो, उसमें ऐसी ग्लानि रूप बुद्धि करना कि मैं सुन्दर रूपवान, संपत्तिवान, बुद्धिमान हूं। यह रंक, दीन, कुरूप मेरी बराबरी का नहीं है । ऐसे सब घृणा भाव अनिष्टकारी हैं, जो इन सब भावों को छोड़कर सबसे प्रेम करता है वह निर्विचिकित्सा अंग का धारी है।
सम्यक्दृष्टि के विचिकित्सा रूप भाव कदापि नहीं होते, वह विचार करता है कि शुभाशुभ कर्मों के उदय से जीवों की अनेक प्रकार विचित्र दशा
होती है। कदाचित् मेरा भी अशुभ उदय आ जाये तो मेरी भी ऐसी ही दुर्दशा ॐ होना कोई असंभव नहीं है इसलिये वह दूसरों को हीन बुद्धि से या ग्लान दृष्टि
से नहीं देखता। जो वस्तु के धर्मों के प्रति ग्लानि न करे उसको निर्विचिकित्सा अंग होता है। द्वेष का अभाव होने से पूर्वकृत कर्म क्षय होते हैं।
जो वस्तु को उसके स्वरूप से देखता है उसे धर्म में प्रीति होती है, धर्म के परिपालन में द्वेष बुद्धि घृणा नहीं होती। मिथ्यादृष्टि मंद कषायवान कदाचित् धर्म का परिपालन करे तो उसे पालते-पालते कभी उदासीनता विरक्ति का भाव भी आ जाता है इसे ही विचिकित्सा कहते हैं । ज्ञानी को अपने स्वरूप रूप प्रवर्तन में दृढ रुचि है यही उसका निर्विचिकित्सा अंग है । वह अन्य धर्मात्माजनों की सेवा करता है. साधुओं की वैयावृत्ति करता है यही उसका व्यवहारिक रूप है। उनकी सेवा में शारीरिक मलादि के कारण उसे घृणा नहीं होती। शरीर का स्वभाव सड़ना गलना है चाहे अपना हो या साधु का हो उससे घृणा कैसी? अत: व्यवहारिक रूप में धर्मात्माओं से प्रीति करता हुआ सेवा करता है, यही निर्विचिकित्सा अंग है, इससे घृणा द्वेष ग्लानि का अभाव
हो जाता है। २६२
-
半长长长长
--------