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________________ 长长长长条出各类 000 - *-*-*-*-*-** श्री उपदेश शुद्ध सार जी विशेषार्थ-चौदह प्राणों का स्वभाव जानने से अपने शुद्ध स्वभाव का सहकार और शुद्ध दृष्टि होती है, ममल स्वभाव में रहने से आत्मा परमात्मा केवलज्ञान स्वभावी हो जाता है। तीनों प्रकार के कर्म क्षय होने लगते हैं फिर शुभाशुभ कर्मों का बंध भी नहीं होता, सारे भाव ही क्षय हो जाते हैं । अपने चैतन्य प्राण शुद्ध स्वभाव को पहिचानने से ममल स्वभाव का अतीन्द्रिय आनंद आने लगता है और इसकी स्थिरता से केवलज्ञान प्रगट होता है। आत्मा ज्ञान स्वभाव से सदा प्रगट है तो भी उसमें अन्य मानना या पर का कर्तृत्व या भोक्तृत्व मानना अज्ञान भाव है । यह अज्ञानमय भाव क्षणिक होने से ज्ञानमय भाव द्वारा दूर होता है। इससे सिद्ध होता है कि निज शुद्धत्व रूप मोक्ष आत्मा का स्वभाव है। बंधन, भूल,अशुद्धत्व, संयोगी दश प्राण उसका स्वभाव नहीं है। अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख और अनंत वीर्य से आत्मा परिपूर्ण है जिसका सहज स्वभाव शुद्ध ममल ही है, उस स्वभाव का आदि अंत नहीं है, यह निज तत्व जैसा है वैसा पहिचाना जाये तो यह आत्मा पूर्ण कृतकृत्य होकर सहज स्वतंत्र परमात्मा केवलज्ञान स्वभावी होता है। पुण्य-पाप और राग-द्वेष रूप उपाधि से भिन्न ऐसे ज्ञानानंद स्वरूप की श्रद्धा समझ और उसमें स्थिरता के सत्पुरुषार्थ द्वारा क्रमश: पूर्ण रूप से शुद्धता प्रगट होती है और उससे सादि अनंत निराकुल रूप सुख दशा प्रगट होती है। निराकुलता का तात्पर्य आधि व्याधि और उपाधि रहित शांति से है। आधि- मन की चिंता, मन के शुभाशुभ विकल्प रूप विकारी कार्य अर्थात् चैतन्य की अस्थिरता। व्याधि-शरीर की रोगादि विषयक चिंता। उपाधि - स्त्री, धन, पुत्र, इज्जत आदि की चिंता। उपर्युक्त आधि, व्याधि और उपाधि रूप आकुलता से रहित सहजानंद रूप सुख दशा है। इससे तीनों प्रकार के कर्म क्षय होते हैं और केवलज्ञान * परमात्म पद प्रगट होता है। प्रश्न- यह कर्मों का सम्बंध कैसे छूटता है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं गाथा - ४६८ एअतीचार कम्मान, न्यानसहावेन कम्म विलयंति। ममलं ममल सहावं, न्यान विन्यान मुक्ति गमनं च ॥ ४५८॥ अन्वयार्थ -(ए अतीचार कम्मानं) यह कर्मों का दोष अतिचार सम्बंध (न्यान सहावेन कम्म विलयंति) ज्ञान स्वभाव की साधना से सब कर्म विला जाते हैं (ममलं ममल सहावं) ममल स्वभाव ममल ही ममल रहता है (न्यान विन्यान मुक्ति गमनं च) ज्ञान विज्ञान से मुक्ति की प्राप्ति होती है। विशेषार्थ- आत्मा तो ममल ही ममल स्वभाव है, आत्मा में तो कोई कर्म मल है ही नहीं। अज्ञानता से यह कर्मों का सम्बंध है, ज्ञान स्वभाव की साधना से सब कर्म विला जाते हैं, भेदविज्ञान से मुक्ति की प्राप्ति होती है। ज्ञानावरण दर्शनावरण आदि आठकर्म इन पुद्गल रज कणों के संयोगी सम्बंध वाले हैं और अनादि काल से प्रवाह रूप से चले आ रहे हैं। पुराने कर्म दूर हो जाते हैं और नये कर्म आते हैं, ऐसा अनादि कालीन प्रवाह है। आत्मा अबंध है, ममल स्वभाव वाला है, उसे भूलकर इस जीव ने बंध भाव में अटक कर अनंत दु:ख पाये हैं किंतु जब से स्व सन्मुखता द्वारा सब बंध भावों को भेद कर सम्यक्दर्शन प्रगट किया तब से पूर्णता के लक्ष्य में स्थिरता का पुरुषार्थ बढ़ाते-बढ़ाते जीव के जब केवलज्ञान प्रगट होता है तब चार घातिया कर्म क्षय हो जाते हैं। चौदहवें गुणस्थान में शेष चार अघातिया कर्मों के छूटने पर आत्मा अविनाशी मुक्त सिद्ध दशा को प्राप्त करता है।। प्रत्येक आत्मा में अनुपम अतीन्द्रिय अनंत सुख शक्ति रूप में विद्यमान है। द्रव्य स्वभाव ही सुख रूप है, स्वाधीन है। यदि वह शक्ति रूप में न हो तो कभी प्रगट भी नहीं हो सकता। आत्मशक्ति पूर्ण है, वह उस ही प्रकार के पूर्ण श्रद्धान, ज्ञान, चारित्र द्वारा प्रगट हो सकती है. अन्य उपाय से मोक्ष नहीं हो सकता। इससे यह निश्चित हुआ कि पुण्य से नहीं, मन के शुभ परिणाम से नहीं, शरीर से नहीं किंतु आत्मा में ज्ञान प्रगट करके भेदविज्ञान द्वारा उसमें स्थिरता करने से मोक्षमार्ग और मोक्ष दशा प्रगट होती है। प्रश्न- साधक दशा में सम्यकदर्शन और भेदविज्ञान होने पर फिर क्या होता है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं RE 平乡长当法法》答答答 山治市政市示出部 २५९ - ----
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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