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________________ २७२६६२७ ********** श्री उपदेश शुद्ध सार जी दंसन अंग स उत्तं, संभिक दंसनस्य सुद्ध सभावं । अनंत दंसन दिट्ठी, सुद्ध सहावेन ममल दिट्ठीओ ।। ४६९ ।। अन्वयार्थ - (दंसन अंग स उत्तं) सम्यक्दर्शन के अंगों को कहते हैं (संमिक दंसनस्य सुद्ध सभावं ) उसका सम्यक्दर्शन शुद्ध होता है ( अनंत दंसन दिट्ठी) अनंत दर्शन की दृष्टि होती है (सुद्ध सहावेन ममल दिट्टीओ) शुद्ध स्वभाव की ममल दृष्टि होती है। विशेषार्थ साधक का भावक भावों से भिन्न होने पर चौदह प्राण का प्रगटपना होता है। सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान की विशेषता से दर्शन के आठ अंग प्रगट होते हैं, सम्यक्दर्शन शुद्ध होता है, अनंत दर्शन की दृष्टि होती है, शुद्ध स्वभाव से ममल दृष्टि होती है तब ही अष्ट अंग परिपूर्ण होते हैं । जिसे आत्मा की श्रद्धा है वह उत्कृष्ट प्रतिकूल प्रसंगों में भी खेद नहीं करता, अंतरंग में क्षोभ नहीं करता, ऐसी उसके ज्ञान की दृढ़ता होती है। जब तक वह गृहस्थ दशा में है तथा पुरुषार्थ निर्बल है तब तक ज्ञानी होते हुए भी उसे थोड़ी अस्थिरता हो जाती है किंतु अभिप्राय में अशरीरी वीतराग भाव का लक्ष्य रखता है । मैं ज्ञाता हूँ, पूर्ण हूँ, शुद्ध हूँ, ऐसी श्रद्धा रखता है यही शुद्ध सम्यक्दर्शन है । प्रश्न- अष्ट अंग कौन-कौन से हैं? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - निसंकिय निकंषिय, निविदिगिंच्छा अमूढ़ दिट्ठीओ । उवगूहन ठिदिकरनं, वाछिल पहावना अंग अस्टंमि ॥ ४७० ॥ अन्वयार्थ - (निसंकिय) निःशंकित (निकंषिय) नि:कांक्षित (निविदि गिंच्छा) निर्विचिकित्सा (अमूढ दिट्टीओ) अमूढ़ दृष्टि (उवगूहन) उपगूहन (ठिदिकरनं) स्थितिकरण (वाछिल ) वात्सल्य ( पहावना) प्रभावना (अंग अस्टंमि) यह आठ अंग होते हैं। विशेषार्थ सम्यक्दर्शन के आठ अंगों के नाम- १. निःशंकित, २. नि:कांक्षित, ३. निर्विचिकित्सा ४ अमूढदृष्टि ५ उपगूहन, ६. स्थितिकरण, ७. वात्सल्य, ८ प्रभावना यह आठ अंग सम्यदृष्टि ज्ञानी को परिपूर्ण होते हैं । साधक पूर्णता के लक्ष्य से पुरुषार्थ करता है, वह पुण्यादि उपाधियों 惠尔克-華克-尔-尔惠-尔尔克尔 २६० गाथा ४६९-४७३ ******** को देखकर उनमें अटकता नहीं है, अपने अखंड शुद्धात्मा पर ही उसकी दृष्टि है । इससे पूर्ण आत्मा कैसा है, कितना विकास रूप अनावृत है, कितना अनावृत होना शेष है यह सब जानते हुए वह शीघ्र पूर्णता को प्राप्त करता है। प्रश्न- इन आठ अंगों का स्वरूप भिन्न-भिन्न बताइये ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - १. निःशंकित अंग - निसंक संक रहिओ, नव सभाव रहिय ससंक विरयंति । निसंक न्यान अन्मोयं, पज्जय अन्यान संक विलयंति ॥ ४७१ ॥ अन्यान नहु पिच्छदि, अन्यान भाव सयल तिक्तं च । न्यान सहाव अन्मोयं, ममल सहावेन कम्म संषिपनं ॥ ४७२ ॥ पर पज्जाव न पिच्छं, पज्जय परिनाम सयल गलियं च । न्यान सहाव सुसमर्थ, निसंक भाव कम्म विलयंति ॥ ४७३ ॥ अन्वयार्थ - (निसंक संक रहिओ) निशंक का अर्थ शंका रहित होना है (नव सभाव रहिय ससंक विरयंति) नवीन शंकाओं से रहित होने से आगे-पीछे की कोई शंकायें होती ही नहीं हैं (निसंक न्यान अन्मोयं) ज्ञान के आलंबन से ही निशंक होते हैं (पज्जय अन्यान संक विलयंति) इसी से अज्ञान रूपी पर्याय और शंका विला जाती है। (अन्यानं हु पिच्छदि) अज्ञान को नहीं देखना चाहिये (अन्यान भाव सयल तिक्तं च) अज्ञान भाव सब छोड़ देना चाहिये (न्यान सहाव अन्मोयं ) ज्ञान स्वभाव का आश्रय रखने से (ममल सहावेन कम्म संषिपनं) ममल स्वभाव से सारे कर्म क्षय हो जाते हैं। ( पर पज्जाव न पिच्छं) पर पर्याय को मत देखो जानो (पज्जय परिनाम सयल गलियं च) पर्यायी परिणमन तो सब गल जाने वाला है (न्यान सहाव सुसमयं ) अपना शुद्धात्म स्वरूप ही ज्ञान स्वभाव है (निसंक भाव कम्म विलयंति) ऐसे निशंक भाव में रहने से कर्म विला जाते हैं। विशेषार्थ शंका नाम संशय तथा भय का है। सर्वज्ञ देव ने वस्तु का स्वरूप कहा है सो सत्य है कि असत्य है ? ऐसी शंका उत्पन्न न होना निःशंकित अंग है क्योंकि ऐसी शंका तो मिथ्यात्व कर्म के उदय से ही होती है। मिथ्यात्व sle **************
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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