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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
गाथा-४६५-४६७*12--21-2---- द्रव्य रूप नहीं होता, जैसे-चांदनी पृथ्वी को उज्ज्वल करती है किंतु
इस प्रकार साधक को यह चार प्राणों का अनुभव प्रगट होता है. जिससे पृथ्वी चांदनी की किंचित् मात्र भी नहीं होती। इसी प्रकार ज्ञान ज्ञेय को जानता
उसका आत्मबल बढ़ जाता है, पुरुषार्थ जाग जाता है और वह मोक्षमार्ग में 4 है किंतु ज्ञेय ज्ञान का किंचित् मात्र भी नहीं होता। आत्मा का ज्ञान स्वभाव है
आगे बढ़ जाता है। इसलिये उसकी स्वच्छता में ज्ञेय स्वयमेव झलकता है किंतु ज्ञान में उन ज्ञेयों।
प्रश्न - साधकको वर्तमान दशा में चार प्राणों का कैसा वेदन का प्रवेश नहीं होता।
होता है? ४.चेतना प्राण
समाधान - सुख प्राण से प्रसन्नता हल्कापन, आनंद की दशा रहने चेयन अनन्त रूवं, चेयन आनंद कम्म संषिपनं ।
लगती है, मन से जो विषाद भयभीतता होती थी वह मिट जाती है । सत्ता चिदानन्द आनन्दं, परमं आनन्द सुद्ध दिट्ठीओ ॥४६५॥ प्राण से अपने स्वरूप की सत्ता शक्ति जानने में आ जाती है जिससे निर्भय, अन्वयार्थ - (चेयन अनन्त रूवं) अनंत काल तक रहने वाला चैतन्य
निर्द्वन्द रहने लगता है। बोध प्राण से ज्ञान स्वभाव का जागरण हो जाता है प्राण आत्मा का स्वभाव है (चेयन आनंद कम्म संषिपनं) चैतन्य के आनंद में
फिर वह किसी पर्यायी परिणमन में नहीं जुड़ता, अच्छा-बुरा नहीं मानता, रहने से कर्म क्षय हो जाता है (चिदानन्द आनन्दं) चिदानंद आनंद में रहता है
अज्ञान से सावधान हो जाता है । चैतन्य प्राण से हमेशा स्वस्थ होश में रहने (परमं आनन्द सुद्ध दिट्ठीओ) शुद्ध दृष्टि में परमानंद आता है।
लगता है, फिर जीने-मरने का कोई भय नहीं रहता, शरीर से विरक्त हो विशेषार्थ- अनादि अनंत काल तक रहने वाला ही जीव का चैतन्य
जाता है । अपने में दृढता, अटलता, अभयता आती है और क्षायिक भाव में प्राण है। चैतन्य के आनंद में रहने से कर्म क्षय होते हैं । चिदानंद आनंद से ही
रहने लगता है। शुद्ध दृष्टि केवलज्ञान स्वरूप परमानंद प्रगट होता है।
प्रश्न - फिर चौदह प्राणों की क्या विशेषता होती है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - यह आत्मा स्पर्श रस आदि गुणों से रहित और पुद्गल तथा अन्य चार अजीवों से भिन्न है, उसे भिन्न करने का साधन तो चेतना गुणमयता है। राग
चौदस प्रान सुभावं, सुखं सहकार सुद्ध दिडीओ। और विकल्पों से भी भिन्न करने का साधन चेतना गुणमयता ही है । चेतना ममल सहाव संजुत्तं, अप्पा परमप्प ममल न्यानस्य ॥ ४६६॥ गुणमय शक्ति ही चैतन्य प्राण है, जो आत्मा को अन्य द्रव्यों से भिन्न करने का
विपिओ कम्म तिविहं, विपिओ परिनाम असुद्धबंधान। साधन है, जो अनादि से अनंत काल तक रहने वाला है। चैतन्य लक्षण द्वारा स्व को लक्षित करते हुए ध्रुव स्वभाव पर लक्ष्य जाता है।
सुख सहावं पिच्छदि, ममल सहावेन ममल न्यानस्य ॥ ४६७॥ आत्मा को चेतना गुणमय बतलाया है क्योंकि ज्ञान की पर्याय का अंश
अन्वयार्थ - (चौदस प्रान सुभावं) दश प्राण संयोगी पर्याय के और प्रगट है अत: चेतना गुणमय त्रिकाल है। आनंद का अंश तो जब स्वभाव का चार प्राण निज स्वभाव के, इन चौदह प्राणों का स्वभाव जानने से (सुद्ध आश्रय लें तब प्रगट होता है परंतु चेतना की वर्तमान पर्याय तो अज्ञानी का भी
सहकार सुद्ध दिट्ठीओ) अपने शुद्ध स्वभाव का सहकार और शुद्ध दृष्टि होती है विकसित अंश है, निगोद से लेकर सिद्ध दशा तक चैतन्य स्वभाव ही अनंत
(ममल सहाव संजुत्तं) ममल स्वभाव में रहने से (अप्पा परमप्प ममल * अपरिमित दिखता है।
न्यानस्य) आत्मा परमात्मा केवलज्ञान स्वभावी हो जाता है। चिदानंद स्वभाव का भान करने वाला अल्प काल में मोक्ष चला जाता
(पिपिओ कम्मं तिविह) तीनों प्रकार के कर्म क्षय होने लगते हैं (पिपिओ है। अंतर का मोक्षमार्ग तो राग से परे चैतन्य स्वभाव के आश्रय से परिणमता परिनाम असुद्ध बंधानं) अशुद्ध बंध परिणाम भी क्षय हो जाते हैं (सुद्ध सहावं है। त्रिकाली चिदानंद चैतन्य स्वरूप की अनुभूति से केवलज्ञान स्वभाव पिच्छदि) अपने शुद्ध स्वभाव को पहिचानने से (ममल सहावेन ममल न्यानस्य) परमानंद प्रगट होता है।
ममल स्वभाव केवलज्ञान स्वरूप प्रगट हो जाता है।
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