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________________ *-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी होता है अर्थात् साधक में दृढ़ता आती है, अपने ज्ञान श्रद्धान का अटल श्रद्धान विश्वास होता है। ज्ञान स्वभाव की दृढ़ता होना ही क्षायिक भाव है और सुख की अनुभूति इसी भाव से होती है क्योंकि जब तक अपने ममल स्वभाव का दृढ़ श्रद्धान विश्वास नहीं होता है तब तक चल मल अगाढ़पना भयभीतता रहती है वहां सुख की अनुभूति नहीं होती । सुख की अनुभूति प्रगट होने पर कर्ममल स्वयं ही क्षय होने लगते हैं यही सुख प्राण का प्रगट होना है। आत्मीय आनंद आना ही सुख प्राण है जो केवलज्ञान प्रगट होने पर अनंत सुख रूप हो जाता है। स्वरूप के अनुभव से आता हुआ ज्ञान ही आत्मा है, ऐसे ज्ञान स्वभाव का स्व संवेदन ही सुख की अनुभूति सुख प्राण है। प्रश्न- क्षायिक भाव तो क्षायिक सम्यक्त्व होने पर होता है क्या यहां क्षायिक सम्यक्त्व हो गया ? समाधान- नहीं, यहां क्षायिक सम्यक्त्व की प्रधानता नहीं है, यहां अपने भाव में दृढ़ता, अटलता आना कि मैं ध्रुवतत्त्व शुद्धात्मा, ममल स्वभावी ही हूं, ऐसा दृढ श्रद्धान होना ही क्षायिक भाव है और इसी दृढ़ता से क्षायिक सम्यक्त्व भी होता है; फिर यह किसी भी कर्मोदय जन्य परिणमन में जुड़ना, अच्छा-बुरा लगना मिट जाता है। यह क्षायिक भाव हो जाना और सुख की अनुभूति होने लगना, साधक की विशेष उपलब्धि है । २. सत्ता प्राण सातानन्त विसेसं, सहकारे न्यान ममल सहकारं । सहकार कम्म षिपनं, साता प्रान ममल दिट्ठीओ ॥ ४६३ ॥ अन्वयार्थ (सातानन्त विसेसं) सत्ता की अनंत विशेषता है (सहकारे न्यान ममल सहकार) सत्ता के सहकार से ही ज्ञान ममल स्वभाव को स्वीकार करता है (सहकार कम्म षिपनं) सत्ता स्वरूप के प्रगट होते ही कर्म क्षय हो जाते हैं (साता प्रान ममल दिट्ठीओ) सत्ता प्राण ममल दिखता है। - - विशेषार्थ - सत्ता प्राण की अनंत विशेषता है। सत्ता प्राण से ही जीव अनादि से अनंत काल तक बना रहता है। स्व स्वरूप की सत्ता की अनुभूति ही सत्ता प्राण है । मैं ममलज्ञान स्वभावी हूं, ऐसे सत्ता स्वरूप की अनुभूति होना सत्ता २५७ प्राण है इससे "सत्ता एक शून्य विंद' का प्रकाश होता है। निज सत्ता का स्वाभिमान बहुमान होने पर कर्म क्षय हो जाते हैं। कर्मों के क्षय होने पर पूर्ण शुद्ध ममल स्वभाव प्रगट हो जाता है यही सत्ता प्राण है। साधक को निज सत्ता स्वरूप की अनुभूति होने पर ज्ञात होता है कि मैं पूर्ण शुद्ध असंग हूं। मैं नित्य अतीन्द्रिय ज्ञानमय हूं। मेरे अतिरिक्त अन्य कोई कुछ है ही नहीं। मैं चेतन असंख्यात प्रदेशी सिद्ध स्वरूप शुद्धात्मा हूं यही सत्ता प्राण है। गाथा ४६३, ४६४ ****** ३. बोध प्राण - बोधं न्यान सहावं, न्यान विन्यान ममल न्यानस्य । परिनाम न्यान सुसमर्थ, प्रानं बोधं च ममल मल रहिये ।। ४६४ ।। अन्वयार्थ (बोधं न्यान सहावं) ज्ञान स्वभाव को बोध प्राण कहते हैं ( न्यान विन्यान ममल न्यानस्य) भेदविज्ञान से यह ज्ञान स्वभाव शुद्ध ममल हो जाता है (परिनाम न्यान सुसमयं ) तब ज्ञान अपने शुद्धात्म स्वरूप में ही परिणमन करता है (प्रानं बोधं च ममल मल रहियं) कर्म मल से रहित होने पर यह बोध प्राण ममल हो जाता है। विशेषार्थ आत्मा का तीसरा स्वाभाविक प्राण बोध या ज्ञान है । जहां तक ज्ञानावरण कर्म का उदय है वहां तक यह बोध प्राण मलिन रहता है, जब सर्वथा कर्म मल क्षय हो जाता है तब अनंत ज्ञान स्वभाव प्रगट हो जाता है। - - भगवान आत्मा ज्ञान और आनंद स्वरूपी होने से वह ज्ञान गुण द्वारा ही अनुभूत होने योग्य है, वह ज्ञान गुण बिना अनुभूत नहीं होता। भगवान की वाणी से नहीं, उनके निमित्त से हुए परलक्षी ज्ञान से भी नहीं परंतु जो स्वलक्षी भावश्रुत ज्ञान है, उससे आत्मा की अनुभूति होती है, ज्ञान विज्ञान होना, विवेक का जागरण ही बोध प्राण है। ज्ञान द्वारा स्वरूप शक्ति को जानना । ज्ञान लक्षण व लक्ष्य रूप आत्मा अपने ज्ञान में भासित होता है तब सहज आनंद धारा बहती है यही बोध प्राण है, जहां आत्मा की ऐसी अनुभूति हुई कि ज्ञान सर्व विकल्पों से भिन्न होकर परिणमित होता है । किसी अन्य शुद्धनय की दृष्टि से देखा जाये तो किसी द्रव्य का स्वभाव, 货到
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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