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**** ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
प्रश्न - भावक भावों से अपने को भिन्न जानने पर फिर भावक * भाव होते हैं या नहीं?
समाधान - भावक भावों से अपने को भिन्न जानने पर ज्ञायक की स्थिति हो जाती है, जिससे उन भावों द्वारा पुन: कर्मबंध नहीं होता। भावक भाव तो गुणस्थान के अनुसार होते हैं।
प्रश्न- जब साधक अपने आत्म स्वभाव की साधना करता है फिर यह भाव क्यों होते हैं?
समाधान - साधक अपने स्वभाव की साधना करता है परंतु जब तक स्वरूप में लीनता अर्थात् केवलज्ञान नहीं होता तब तक यह भाव होते हैं। साधक की दृष्टि अपने शुद्धात्म तत्त्व पर होती है तथापि ज्ञान में स्वभाव और पर्याय दोनों का बोध रहता है, वह शुद्ध-अशुद्ध पर्याय को जानता है और उन्हें जानते हुए उनके स्वभाव विभावपने का, उनके सुख-दुःख रूप वेदन का, उनके साधक-बाधकपने का विवेक रहता है।
साधक दशा में साधक के योग्य अनेक परिणाम होते रहते हैं परंत मैं परिपूर्ण धुवतत्त्व हूं ऐसा ज्ञानबल सतत् रहता है। पुरुषार्थ रूप क्रिया अपनी पर्याय में होती है और साधक उसे जानता है तथापि दृष्टि अपने ममल स्वभाव की ही रहती है। ऐसी साधक परिणति की अटपटी रीति को ज्ञानी बराबर समझते हैं, दूसरों को समझना कठिन होता है।
प्रश्न - भावक भावों से भिन्नता होने पर फिर क्या होता है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंदह पाना पज्जत्ती, सुद्धं ससहाव हुँति चौदसमो। ममल सहावं दिह, चौदस प्रान भाव उप्पत्ती ॥ ४६०॥ दह संजुत्तं सहियं, अतींदी सहकार सहाव संजुत्तं। न्यान सहाव स उत्तं,सुष साता बोध चेयना रूवं ॥४६१॥
अन्वयार्थ - (दह पाना पज्जत्ती) दश प्राण संयोगी पर्याय के होते हैं (सुद्धं ससहाव हुंति चौदसमो) शुद्ध स्वभाव होने अर्थात् केवलज्ञान होने पर * चौदह प्राण होते हैं (ममल सहावं दि8) ममल स्वभाव को देखने अर्थात् ममल * स्वभाव की दृष्टि होने से (चौदस प्रान भाव उप्पत्ती) चौदह प्राण के भाव पैदा * हो जाते हैं।
गाथा-४६०-४६२ - HHHHHHE (दह संजुत्तं सहियं) दश प्राण अर्थात् पांच इंद्रिय, तीन बल, आयु और श्वासोच्छवास यह दश प्राण सहित तो हो (अतींदी सहकार सहाव संजुत्तं) अतीन्द्रिय स्वभाव का सहकार व उसमें लीन होने पर (न्यान सहाव स उत्तं) जो ज्ञान स्वभाव कहा गया है (सुष साता बोध चेयना रूव) सुख, सत्ता, बोध और चेतना यह चार प्राण प्रगट होते हैं।
विशेषार्थ- भावक भाव से भिन्नता होने पर अभी तक जो दश प्राण ही माने जाते थे, साधक की ममल स्वभाव पर दृष्टि होने से चौदह प्राण के भाव पैदा हो जाते हैं क्योंकि दश प्राण तो पर्यायी हैं अरिहंत केवलज्ञानी को चौदह प्राण होते हैं । दश प्राण-पांच इंद्रिय-स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु, कर्ण । तीन बल-मन, वचन, काय-आयु और श्वासोच्छवास, यह तो वर्तमान संयोगी पर्याय में हैं। जब अपने अतीन्द्रिय स्वभाव में लीन होते हैं, जिसे ज्ञान स्वभाव कहा गया है, वहां सुख, सत्ता, बोध,चेतना यह जो जीव के वास्तविक चार प्राण हैं यह प्रगट हो जाते हैं। शरीर में जो प्राणों का संबंध जुड़ा था,
साधक इससे भिन्न अपने वास्तविक प्राण को जान लेता है फिर उसे शरीर के ॐ प्रति ममत्व नहीं रहता और शरीर के प्राणों के जाने पर अपनी हानि नहीं
मानता । साधक जीव प्रारंभ से अंत तक निश्चय की ही मुख्यता रखकर व्यवहार को गौण करते जाते हैं, उससे साधक दशा में निश्चय की मुख्यता के बल से शुद्धता की वृद्धि होती जाती है। केवलज्ञान होने पर वहां मुख्य गौणपना नहीं होता और नय भी नहीं होते हैं।
प्रश्न - यह चार प्राणों का स्वरूप क्या है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं
१. सुख प्राणसुषंचभाव उपत्ती, सुष षिपनिकभाव परिनाम संजुत्त। कम्म मल सुर्य च विपनं, सुष प्रानं सहाव उवनं च ॥ ४६२॥
अन्वयार्थ - (सुषं च भाव उपत्ती) सुख के भाव पैदा होना (सुष षिपनिक भाव परिनाम संजुत्तं) सुख क्षायिक भाव के परिणाम से संयुक्त होता
है (कम्म मल सुयं च विपनं) इससे कर्ममल स्वयं क्षय होने लगते हैं (सुष प्रानं 9 सहाव उवनं च) यही सुख प्राण स्वभाव का प्रगट होना है।
विशेषार्थ- सुख प्राण-सुख के भाव पैदा होना, अपने आपमें सुख की अनुभूति होना । ममल स्वभाव की अनुभूति होने पर क्षायिक भाव प्रगट
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