________________
२५६४
-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
पूर्ति होना संभव ही नहीं है।
ज्ञानी इस वस्तु स्थिति को जानता है वह इनमें से किसी की भी इच्छा नहीं करता, कोई आकांक्षा नहीं करता, अत्यंत विरक्त होता हुआ, उसका ज्ञाता ही रहता है।
५५. आलस भाव, ५६. प्रपंच भाव, ५७. विभ्रम भावआलस अनिस्ट रूर्व, आलस परिनाम अनित तिक्तं च ।
आवरनं नहु उत्तं, अप्प सहावेन आलसं मुक्कं ।। ४५७ ।। परपंच पर पिच्छं, पर पज्जाव परिनाम मुक्कं च ।
आवरनं बहु पिच्छं, ममल सहावेन कम्म संचिपनं ।। ४५८ ।। विभ्रम विप्रिय भावं विप्रिय परिनाम अनिस्ट गलिये च । आवरनं न पिच्छं, न्यान सहावेन कम्म संविपनं ।। ४५९ ।।
अन्वयार्थ - (आलस अनिस्ट रूवं ) आलस अनिष्टकारी भाव है (आलस परिनाम अन्रित तिक्तं च) आलस परिणाम क्षणभंगुर छूटने वाले हैं (आवरनं नहु उत्तं) इस आवरण की चर्चा ही मत करो (अप्प सहावेन आलसं मुक्कं) आत्म स्वभाव से सब आलस भाव क्षय हो जाते हैं।
( परपंच पर पिच्छं) प्रपंच भाव पर पदार्थ के संबंध से होते हैं (पर पज्जाव परिनाम मुक्कं च) पर पर्याय के परिणाम सब छूट जाने वाले हैं (आवरनं नहु पिच्छं) इस आवरण को मत देखो, जानो (ममल सहावेन कम्म संषिपनं) ममल स्वभाव से सब कर्म क्षय हो जाते हैं।
(विभ्रम विप्रिय भावं) विभ्रम बड़ा विपरीत भाव है (विप्रिय परिनाम अनिस्ट गलियं च) संशय रूप विपरीत अप्रिय भाव अनिष्टकारी गल जाने वाला है (आवरनंनहु पिच्छं) इस आवरण को जानने पहिचानने में मत लगो (न्यान सहावेन कम्म संषिपनं) अपने ज्ञान स्वभाव में रहने से सब कर्म क्षय हो जाते हैं।
विशेषार्थ ५५ ५६ ५७, आलस, प्रपंच, विभ्रम भाव - साधक की साधना में बाधक यह सूक्ष्म परिणाम हैं। आलस भाव-प्रमाद, असावधानी, यह प्रमत्त गुणस्थान तक होता है। प्रपंच भाव पर पर्याय की ओर लक्ष्य रहने से होता है । विभ्रम भाव-संशय भाव सम्यक्ज्ञान की शुद्धि न होने तक होता
-
२५५
गाथा ४५७-४५९*******
है। सम्यक्ज्ञान होने पर यह सब भाव विला जाते हैं। यह सब कर्मोदय जन्य भाव गल जाने वाले, विला जाने वाले हैं, इस आवरण को मत देखो, अपने ज्ञान स्वरूप ममल स्वभाव में रहने से सारे कर्म क्षय हो जाते हैं।
आशा, स्नेह, लाज, लोभ, भय, गारव, आलस, प्रपंच, विभ्रम यह नो भाव चित्त की अस्थिरता, अदृढ़ता के कारण होते हैं। यह सूक्ष्म भाव हैं, मन के बाद पकड़ में आते हैं।
साधक आगे क्यों नहीं बढ़ता ? विचार करने पर यही प्रतीत होता है कि अंत:करण में राग-द्वेष, अहंता, ममता और कामना आदि अनेक दोष भरे हुए हैं जिनके कारण अंतःकरण अपवित्र हो रहा है जिससे साधना में बाधा हो रही है। अतः अंत:करण को शुद्ध करने के लिये निष्काम भाव से शौचाचार, सदाचार, जप, तप सात्विक भोजन और सत्य व्यवहार आदि की बहुत आवश्यकता है क्योंकि यह आत्म कल्याण में परम आवश्यक है ।
संकल्प - विकल्प मन का काम है। राग-द्वेष (अच्छा बुरा मानना) बुद्धि का काम है। चाह, चिंता, चिंतन- चित्त का काम है। मोह (चारों कषाय) अहं का काम है।
जिसे धैर्य, दूरदृष्टि, स्थिरमति और दृढ़ दक्षता है वह किसी भाव में परेशान नहीं होता है।
विवेकवान साधक के लिये अपने स्वरूपानुसंधान में प्रमाद करने से बढ़कर और कोई अनर्थ नहीं है क्योंकि इसी से प्रपंचभाव होते हैं और प्रपंच से विभ्रमभाव होते हैं ।
जब तक साधक अपने परम पुरुषार्थ को निजबल से प्रगट कर अनादिकालीन कर्म निमित्त जन्य विभावों और विकल्पों से अपने को नहीं निकालता अर्थात् अपने स्वरूप में स्थित नहीं होता तब तक यह भावक भावों की श्रृंखला नहीं टूटती ।
भावक भाव और ज्ञेयभावों से भेदज्ञान होने पर जब सर्व अन्य भावों से भिन्नता हुई तब यह उपयोग स्वयं ही अपने एक आत्मा को धारण करता हुआ • अपने ज्ञानानंद स्वभाव में रमण करता है, अपने ध्रुवधाम में स्थित रहता है अन्यत्र नहीं जाता ।
साधक की दृष्टि निरंतर अपने ममल स्वभाव ध्रुव तत्व पर ही रहती है, इससे सब कर्म क्षय हो जाते हैं।
务器