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________________ गाथा-४४९. ४५०*---------- 是多层立法法》法: ********* श्री उपदेश शुद्ध सार जी परिनाम नन्त गलियं च) निद्रा संबंधी सभी भाव गल जाने वाले हैं (आवरनं नहु दि8) आवरण को मत देखो (अप्प सरूवं च कम्म नहु पिच्छं) अपने आत्म स्वरूप को देखो, इन कर्मों के चक्कर में मत पड़ो, इनको मत * देखो। विशेषार्थ-४६. निद्रा भाव-लौकिक में निद्रा भी एक संज्ञा मानी जाती है, मूच्र्छा भाव में ही यह निद्रा और परिग्रह भाव को कहा गया है। स्वाभाविक प्रवृत्ति ही संज्ञा कहलाती है, जिसे दोनों ही निद्रा और परिग्रह भाव रूप कहा गया है। दर्शनावरण कर्म के उदय से मूच्र्छा भाव होता है, जो स्वयं गल जाता है, इस आवरण को मत देखो । अपने आत्म स्वभाव का श्रद्धान ज्ञान होने पर यह दर्शनावरण कर्म भी विला जाता है। जब आत्मा और कर्म के भेदविज्ञान के द्वारा शुद्ध चैतन्य चमत्कार मात्र आत्मा को उपलब्ध करता है, अनुभव करता है, तब मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति और योग स्वरूप अध्यवसान जो कि आसव भाव के कारण हैं उनका अभाव होता है। अध्यवसानों का अभाव होने पर राग-द्वेष, मोह रूप आसव भाव का अभाव होता है। आसव भाव का अभाव होने पर कर्म का अभाव होता है, कर्म का अभाव होने पर नोकर्म का अभाव होता है और नोकर्म का अभाव होने पर संसार का अभाव होता है। ज्ञानी तो स्वभाव भाव का धुवत्व होने से, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भाव स्वरूप नित्य है । जिस उपयोग में आत्म तत्त्व पकड़ने में आवे वह उपयोग सूक्ष्म है। राग को पकड़ने वाला उपयोग स्थूल है। ४७.भय संज्ञा भावभयं च भय संजुत्तं, भय सुभाव अनिस्ट गलियं च। आवरनं न उपत्ति, न्यान सहावेन कम्म संगलियं ॥ ४४९॥ अन्वयार्थ - (भयं च भय संजुत्त) भय संज्ञा से भय में लीन हो रहे हो (भय सुभाव अनिस्ट गलियं च) भय का स्वभाव अनिष्टकारी है परंतु गल जाने वाला है (आवरनं न उपत्ति) आवरण पैदा ही नहीं होते (न्यान सहावेन कम्म संगलियं) ज्ञान स्वभाव में रहने से सब कर्म गल जाते हैं। विशेषार्थ - ४७. भय भाव - डर, घबराहट, भयभीतपना, कंपायमानपना, दबे रहना, यह सब भय भाव हैं, जो मन में मोह माया के ॐ कारण होते हैं। यह सब भय भाव गल जाने वाले हैं. यह आवरण ही पैदा नहीं होता, जब साधक अपने स्व स्वरूप का ज्ञान करता है, ज्ञान स्वभाव में रहता है तो सारे कर्म भी विला जाते हैं। चिंता और भय मानव के मस्तिष्क को बोझ डालकर सतत् क्षीण बनाते रहते हैं। चिंता और भय हमारे मन, स्नायुतंत्र में कंपन तथा रक्त में एक विषैला तत्त्व उत्पन्न कर देते हैं, जिससे रक्तचाप, हृदयाघात आदि रोग होते हैं जो शरीर को जर-जर कर देते हैं। जहां आत्म श्रद्धान और कर्म पर विश्वास है, वहां चिंता और भय नहीं रह सकते। जब भय का राक्षस आपको घेर रहा हो, आप चुपचाप उसको सुन लें। भय आपके सामने आपकी दुर्गति के जिस भयानक काल्पनिक चित्र को प्रस्तुत कर रहा हो, उसे भी देख लें और जरा मन में फैसला कर लें कि आप उसके लिये बिल्कुल तैयार हैं, बस उसी क्षण इस भय रूपी राक्षस के प्राण निकल जायेंगे। भय के कारण आप तिनके को तलवार समझ रहे हैं, तिल को पहाड़ AS मान रहे हैं। अपने ही भय को पालकर अपने सीने पर शत्रु को खड़ा कर लिया है, आप ही उसे निकाल सकते हैं। सम्यक्दृष्टि को संसारी सात भय तो होते ही नहीं हैं । यह भय संज्ञा और भय नो कषाय के भाव नवमें गुणस्थान में विला जाते हैं इसलिये साधक को निर्भय होकर अपने स्वरूप की साधना करना चाहिये। ४८.मैथुन भावमैथुन सहाव जुत्तं, मैथुन परिनाम सयल गलियं च। आवरनं न उपत्ति, ममल सहावेन कम्म विलयंति ॥ ४५०॥ अन्वयार्थ - (मैथुन सहाव जुत्तं) मैथुन के भाव में जुड़ रहे हो (मैथुन परिनाम सयल गलियं च) मैथुन के परिणाम सारे गल जाने वाले हैं (आवरनं न उपत्ति) आवरण ही पैदा नहीं होता (ममल सहावेन कम्म विलयंति) ममल स्वभाव की दृष्टि होने पर सब कर्म विला जाते हैं। विशेषार्थ-४८. मैथुन भाव - कामभाव, अब्रह्म भाव, शरीर व वेद, नोकषाय के उदय तथा बाह्य निमित्त मिलने पर होते हैं । यह सब भाव गल जाने, विला जाने वाले हैं। अपने ब्रह्मस्वरूप, ममल स्वभाव की दृष्टि होने पर यह आवरण ही पैदा नहीं होता व सब कर्म विला जाते हैं। २५२ जो साधक १.वाणी के वेग को, २.मन के वेग को, ३.क्रोध के वेग को, ***** 米长卷, 长长长长 赤城冰山冰e H IKARAN
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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