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गाथा-४४४-४४८*13-1-2-4HEHE
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POREAD
* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
बुद्धि जैसे भाव तो प्रकृति के क्षयोपशम से हैं, क्रोधादि भाव प्रकृति के * उदय से हैं इसलिये यह सभी भाव अचेतन हैं। इस विचार बल से ज्ञानी परभावों
से विरक्त रहता है, जिससे यह सब कर्म क्षय हो जाते हैं फिर कोई कर्मावरण पैदा ही नहीं होते, सब विला जाते हैं।
चैतन्य की महत्ता में जो अतीन्द्रिय आनंद का समुद्र उछलता है उसके समक्ष जगत के किसी भी फल की महत्ता ज्ञानी को नहीं होती। ज्ञानी चैतन्य की विभूति के समक्ष जगत की विभूति को धूल के समान समझकर त्याग करके चैतन्य की साधना करते हैं।
आहार संज्ञा के चार भेद-खाद्य, स्वाद, पेय, लेह्य होते हैं। ४५.खाद्य, स्वाद, पेय,लेह्य भाव - पादं विसेस जुत्तं, पादं परिनाम नंत गलियं च । आवरन भाव तिक्तं, अप्प सहावेन कम्म संषिपनं ॥ ४४४॥ स्वाद सहाव सहियं, स्वादं अनिस्ट श्रुत बहुभेयं । आवरनं नहु जुत्तं, ममल सहावेन कम्म संविपनं ॥४५॥ पीयं सहाव जुत्तं, पीयं अनिस्ट परिनाम वय विरयं । आवरन भाव तिक्तं, प्रिये सहाव कम्म विपनं च ॥ ४४६॥ लेपं सहकार सहियं, लेपं परिनाम नन्त गलियं च। आवरनं नहु जुत्तं, सुद्ध सहावेन कम्म गलियं च ।। ४४७॥
अन्वयार्थ - (षादं विसेस जुत्तं) खाद्य की विशेषता से जुड़ रहे हो अर्थात् खाने पीने के भावों में ही लगे हो (षादं परिनाम नंत गलियं च) खाद्य सम्बन्धी अनन्त परिणाम गल जाने वाले हैं (आवरन भाव तिक्तं) आवरण भाव को छोड़ो (अप्प सहावेन कम्म संषिपनं) आत्म स्वभाव से सब कर्म क्षय हो जाते हैं।
(स्वादं सहाव सहियं) स्वाद के स्वभाव सहित हो रहे हो (स्वादं अनिस्ट *श्रुत बहु भेयं) स्वादभाव अनिष्ट रूप है, शास्त्र में इसके बहुत भेद कहे हैं
(आवरनं नहु जुत्तं) आवरण में मत जुड़ो (ममल सहावेन कम्म संषिपनं) * ममल स्वभाव से कर्म क्षय हो जाते हैं।
(पीयं सहाव जुत्तं) पेय के स्वभाव में जुड़ रहे हो (पीयं अनिस्ट परिनाम ******* ****
वय विरयं) पेय के परिणाम अनिष्टकारी हैं, इससे व्रत भंग हो जाता है, व्रत छूट जाते हैं (आवरन भाव तिक्तं) यह आवरण भाव को छोड़ो (प्रिये सहाव कम्म षिपनं च) अपने प्रिय स्वभाव से कर्म क्षय हो जाते हैं।
(लेपं सहकार सहियं) लेह्य संबंधी भावों सहित हो रहे हो (लेपं परिनाम 3 नन्त गलियं च) लेह्य संबंधी अनंत परिणाम गल जाने वाले हैं (आवरनं नहु
जुत्तं) इस आवरण में मत जुड़ो (सुद्ध सहावेन कम्म गलियं च) शुद्ध स्वभाव से सब कर्म गल जाते हैं।
विशेषार्थ-४५.खाद्य, स्वाद, पेय,लेह भाव-खाद्य-जिससे पेट भरे जैसे-दाल,चावल,रोटी आदि खाद्य पदार्थ । स्वाद-स्वाद का रस लेना, सुगंधित, रसीले, चटपटे, मीठे आदि पदार्थों को खाने के भाव । पेय-पीने योग्य, पानी, दूध, शरबत आदि। लेह्य-चाटने योग्य-मलाई, चटनी, अचार, मुरब्बा आदि। संसारी जीवों के शरीर हैं, इंद्रियां हैं, रागभाव है, इससे खाद्य, स्वाद, पेय, लेह्य आदि के भाव होते हैं। यह सब भाव कर्मोदय जन्य विला जाने वाले हैं। यह भावक भाव के आवरण में साधक को सावधान रहना चाहिये, अपने ममल स्वभाव के आश्रय से यह सब कर्म क्षय हो जाते हैं।
इस लोक में जो अध्यवसान के उदय हैं वे कितने ही तो संसार संबंधी हैं और कितने ही शरीर संबंधी हैं। उनमें से जितने संसार संबंधी हैं उतने बंध के निमित्त हैं और जितने शरीर संबंधी हैं उतने उपभोग के निमित्त हैं। जितने बंध के निमित्त हैं उतने तो राग-द्वेष, मोहादिक हैं और जितने उपभोग के निमित्त हैं उतने सुख-दुःखादिक हैं। इन सभी में ज्ञानी साधक के राग नहीं है क्योंकि वे सभी नाना द्रव्यों के स्वभाव हैं इसलिये टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भाव ममल स्वभाव वाले ज्ञानी के उनका निषेध है।
आत्मा स्वयं प्रभु है, स्वभाव से तो प्रभु है ही, यदि ममल स्वभाव का आश्रय करे तो पर्याय की पामरता मेटकर पर्याय में भी प्रभुता प्रगट कर सकता है।
४६. निद्रा भाव
निद्रा सहाव जुत्तं, निद्रा परिनाम नन्त गलियं च। 8
आवरन नहु दिह, अप्प सरूवं च कम्म नहु पिच्छं ॥४८॥
अन्वयार्थ - (निद्रा सहाव जुत्तं) निद्रा स्वभाव में जुड़ रहे हो (निद्रा २५१
KHELK
HE-B-E-5-15----