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________________ गाथा-४४२,४४३K EEK -15 -16- -16- F *********** श्री उपदेश शुद्ध सार जी लेना भी असह्य लगता है। ____ मैं सर्वज्ञ स्वभाव से परिपूर्ण भगवान हं. ऐसे अनुभव के बल से मोक्षमार्ग * को साधने के लिये तत्पर हुआ साधक कभी मोक्षमार्ग से विमुख नहीं हो * सकता । ममल स्वभाव का आश्रय लेने से शरीरादि से रहित सिद्ध स्वरूप प्रगट होता है। शरीर-शरीर का और आत्मा-आत्मा का कार्य करता है, दोनों भिन्न-भिन्न स्वतंत्र हैं। शरीर का परिणमन जिस समय जिस प्रकार से जैसा होने वाला होता है वह उसके स्वयं से ही होता है, इसमें जीव के हाथ की बात कहां है ? आत्मा में भी राग और ज्ञान के परिणाम होते हैं वे आत्मा स्वयं करता है। जब अपना-अपना कार्य करने में दोनों स्वतंत्र हैं फिर शरीर संबंधी भाव करना या उन भावों में जुड़ना अज्ञानता है। जिस प्रकार स्फटिक में प्रतिबिम्ब दिखने पर भी स्फटिक निर्मल है, उसी प्रकार जीव में विभाव भाव ज्ञात होने पर भी जीव निर्मल है, निर्लेप है। यह सब जो कषाय विभाव ज्ञात होते हैं वे ज्ञेय हैं, मैं तो ज्ञायक हूं, अपने ममल स्वभाव के आलम्बन से सब कर्म क्षय होते हैं। १. जहां शरीर में तनाव चोट, दर्द कमजोरी होती है वहीं शरीर का बोध होता है। २. स्वस्थ आदमी का एक ही लक्षण है कि उसे शरीर का कहीं पता न चलता हो। ३. शरीर स्वस्थ होता है तो श्वास अपने आप शांत होती है, श्वास शांत होती है तो विचार क्षीण हो जाते हैं। ४३. संज्ञा भावसन्या सहाव सहिओ, सन्या परिनाम नंत गलियं च। आवरनं नहु उत्त, सुख सहावेन कम्म विलयति ॥४२॥ अन्वयार्थ - (सन्या सहाव सहिओ) संज्ञा स्वभाव सहित हो रहे हो (सन्या परिनाम नंत गलियं च) संज्ञा के अनंत परिणाम गल जाने वाले हैं (आवरनं नहु उत्तं) इस आवरण की चर्चा ही मत करो (सुद्ध सहावेन कम्म विलयंति) शुद्ध स्वभाव से सब कर्म विला जाते हैं। विशेषार्थ-४३. संज्ञाभाव- स्वाभाविक प्रवृत्ति, अनादि संस्कार वश शरीर के विषयों की प्रवृत्ति अपने आप होना संज्ञा कहलाती है। यह समस्त संसारी जीवों को होती है, इसके चार भेद हैं-आहार, निद्रा, भय, मैथुन । संज्ञा भाव सब गल जाने, विला जाने वाले हैं। इनकी चर्चा ही नहीं करना चाहिये। अपने शुद्ध स्वभाव में रहने से सारे कर्म विला जाते हैं। सातवें गुणस्थान से आहार भाव विला जाते हैं। नवें गुणस्थान से भय और मैथुन संज्ञा भाव विला जाते हैं। दसवें गुणस्थान के बाद कोई संज्ञा भाव होते ही नहीं हैं। शुद्ध स्वभाव धुवतत्त्व में एकाग्र होने से ही निर्मल पर्याय प्रगट होती है, विभाव का अभाव होता है। मोहनीय कर्म के उदय से व शरीर के संबंध से संसारी जीवों को आहार, निद्रा, भय, मैथुन की चाह के भाव होते हैं परंतु अपने शुद्ध स्वभाव में न मोहनीय कर्म है,न शरीर है, ऐसे शुद्ध ममल स्वभाव की साधना से सारे कर्म विला जाते हैं। ४४. आहार भावआहार भाव सहियं, आहार परिनाम सयल विरयंति। आवरनं न उपत्ती, सम भावेन कम्म गलियं च ॥ ४४३ ।। अन्वयार्थ - (आहार भाव सहियं) आहार भाव सहित हो रहे हो (आहार परिनाम सयल विरयंति) आहार भाव तो सब छट जाने वाले हैं (आवरनं न उपत्ती) आवरण तो पैदा ही न होगा (सम भावेन कम्म गलियं च) सम भाव में रहने से सारे कर्म गल जाते हैं। विशेषार्थ - ४४. आहार भाव - खाने की गृद्धता, रस बुद्धि, शरीराशक्ति, यह सब आहार भाव हैं, जो शरीर संबंध से होते हैं, यह सब भाव छूट जाने वाले हैं। असाता वेदनीय कर्म के उदय से जठराग्नि रूप क्षुधा उत्पन्न होती है, वीर्यान्तराय के उदय से उसकी वेदना सहन नहीं की जा सकती और चारित्रमोह के उदय से आहार ग्रहण की इच्छा उत्पन्न होती है, उस इच्छा को ज्ञानी कर्मोदय का कार्य जानते हैं और उसे रोग समान जानकर मिटाना चाहते हैं। शुद्ध दृष्टि समभाव से देखा जाये तो चैतन्य भाव के अतिरिक्त जितने भाव हैं वह परभाव कहे गये हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ, सुख-दु:ख, विचार-कल्पना, संकल्प-विकल्प आदि सब औपाधिक भाव हैं। इनमें विचार SHE-B-E-- 13 २५०
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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