________________
-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
विरयंति) अपने अतीन्द्रिय पारिणामिक भाव का आश्रय लेने पर सुनने संबंधी भाव छूट जाते हैं ।
विशेषार्थ - ३९. घ्राण भावनासिका इंद्रिय द्वारा सुगंध दुर्गंध सूंघने का बोध होता है, अच्छा-बुरा लगना ही घ्राण भाव है। जब तक कुछ भी अच्छा-बुरा लगता है। वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, क्रिया भाव संबंधी अनंत प्रकार के भाव चलते हैं, यह सब भाव विला जाने वाले हैं, कर्मोदय जन्य परिणाम हैं। अपने अतीन्द्रिय परम पारिणामिक भाव का आश्रय लेने पर यह सब भाव विला जाते हैं।
४०. चक्षुभाव - चक्षु इंद्रिय से बाह्य जगत दिखाई देता है, रंग, रूप आदि देखने के भाव, प्रिय-अप्रिय का राग भाव यह सब चक्षु भाव कहलाते हैं। यह सब बहिर्दृष्टि के परिणाम छूट जाने वाले हैं। अपने अतीन्द्रिय ममल स्वभाव का लक्ष्य होने पर अतंर्मुख दृष्टि होते ही यह सब चक्षु भाव विला जाते हैं।
४१. श्रोत्रभाव - कर्ण इंद्रिय द्वारा मधुर स्वर संगीत आदि सुना जाता है, इसमें इष्ट-अनिष्ट लगना श्रोत्रभाव है, यह सब भाव विला जाने वाले हैं। अपने अतीन्द्रिय ममल स्वभाव की दृष्टि होने से यह सब भाव विला जाते हैं । पांच इंद्रियां और मन के द्वारा जो पर का जानना होता है, यह सब इन्द्रिय ज्ञान छूट जाने वाला है। यह क्षायोपशमिक ज्ञान तो उधार रूप रहता है और उधार ज्ञान समय पर काम नहीं आता।
मति ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई विशुद्धि जो जीव की अर्थ को ग्रहण करने की शक्ति है वह लब्धि है। वह लब्धि मति ज्ञानावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न बोध रूप है और अपने विषय को ग्रहण करने के व्यापार का नाम उपयोग है। यह दोनों लब्धि व उपयोग भावेन्द्रिय हैं तथा जाति नामकर्म के साथ शरीर नाम कर्म के उदय से उत्पन्न निवृत्ति और उपकरण रूप शरीर के अवयव द्रव्येन्द्रिय हैं ।
जिन जीवों का चिन्ह स्पर्श विषयक ज्ञान है वे जीव एकन्द्रिय हैं। जिनका चिन्ह स्पर्श और रस विषयक ज्ञान है वे जीव दो इंद्रिय हैं। जिनका चिन्ह स्पर्श, रस और गंध का ज्ञान है वे जीव तीन इंद्रिय हैं, जिनका चिन्ह स्पर्श, रस, गंध और रूप का ज्ञान है वे जीव चार इंद्रिय हैं। जिनका चिन्ह स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द का ज्ञान है वे जीव पंचेन्द्रिय हैं। यह सब जीव
गाथा ४४१ -------
अपने-अपने भेद से अनेक प्रकार के हैं और इन इंद्रियों संबंधी अनेक प्रकार के भाव होते हैं जो सब विला जाने वाले, छूट जाने वाले हैं।
अतीन्द्रिय आनंद के वेदन में, आनंद स्वरूप आत्मा पर से भिन्न, परभावों से स्पष्ट भिन्न देखने में आता है, ज्ञान लक्षण से लक्षित चैतन्य स्वभाव का अनुभव होने पर अतीन्द्रिय आनंद का वेदन होता है, यह अनुभूति ही मैं हूं, ऐसा सम्यक्ज्ञान होता है तभी यह सब कर्मोदय जन्य भावक भाव विला जाते हैं।
४२. शरीर भाव
सरीर भाव सहियं, सरीर परिनाम सबल गलियं च । आवरनंनहु पिच्छदि, न्यान सहावेन कम्म संषिपनं ॥। ४४१ ॥
-
अन्वयार्थ ( सरीर भाव सहियं) शरीर भाव सहित हो रहे हो ( सरीर परिनाम सयल गलियं च ) शरीर संबंधी समस्त परिणाम गल जाने वाले हैं (आवरनं नहु पिच्छदि) यह शरीर रचना जो नो कर्मोदय जन्य है, इसे मत देखो (न्यान सहावेन कम्म संषिपनं) अपने ममल स्वभाव में रहने से सारे कर्म क्षय हो जाते हैं ।
विशेषार्थ - ४२. शरीर भाव- पांच इंद्रियां, ज्ञानेन्द्रिय कहलाती हैं, शरीर पांच कर्मेन्द्रियों द्वारा कार्य करता है हांथ, पांव, गुदा, लिंग, मुख । कर्मेन्द्रिय संबंधी भाव, शरीर भाव कहलाते हैं। जाति नामकर्म के अविनाभावी त्रस और स्थावर नामकर्म के उदय से उत्पन्न आत्मा की त्रसरूप और स्थावर रूप पर्याय को काय कहते हैं। यह आयुकर्म तक ही साथ रहती है इसके बाद छूट जाती है । शरीर संबंधी समस्त परिणाम छूट जाने वाले हैं, यह कर्मोदय जनित पर्याय को मत देखो। अपने ममल ज्ञान स्वभाव का आश्रय लेने पर यह सब कर्म क्षय हो जाते हैं।
साधक को शरीर से विरक्त उदासीन रहना आवश्यक है। यह शरीर विनाशीक मलिन एवं गुणरहित है, इसकी ममता छोड़कर इसमें स्थित अविनाशी, पवित्र एवं सारभूत गुणवाले आत्मा की भावना करना चाहिये ।
संसार में ऐसा कोई तीर्थ नहीं, ऐसा कोई जल नहीं तथा अन्य भी ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसके द्वारा पूर्णपने अपवित्र इस मनुष्य का शरीर प्रत्यक्ष में शुद्ध हो सके। आधि-मानसिक कष्ट, व्याधि- शारीरिक कष्ट और मरण आदि से व्याप्त यह शरीर निरंतर इतना संतापकारक है कि ज्ञानी को उसका नाम
२४९
-*-*-*