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गाथा-४५१-४५३HHHHHI
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- श्री उपदेश शुद्ध सार जी ४.जिव्हा के वेग को, ५.उदर के वेग को एवं ६.जननेन्द्रिय के वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है अर्थात् इनके उद्वेगों से प्रभावित नहीं होता, अपने स्वरूप में शांत समता में रहता है वह परमात्म पद पाता है।
जिसके मन को स्त्रियों ने अपहरण कर लिया है, जो काम भाव से पीडित रहता है, उसकी विद्या, ज्ञान व्यर्थ है । उसे तपस्या त्याग और शास्त्राभ्यास से भी कोई लाभ नहीं है, उसका एकांत सेवन और मौन भी निष्फल है।
ब्रह्मचर्य का सामान्य अर्थ काम संयम है परंतु इसके मूल में वासनाओं या विकारों का निरोध भी समाहित समझना चाहिये । जब तक सभी इंद्रियों का संतुलित एवं संतोषजनक संयम न हो तब तक काम संयम नहीं रखा जा सकता क्योंकि सभी इंद्रियां अन्योन्याश्रित हैं । मन ग्यारहवां करण (इंद्रिय) है, मन से विकृत मनुष्य ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकता क्योंकि वासनाओं एवं विकारों का मन में उदय होने पर काम संयम अत्यंत कठिन हो जाता है।
जो साधक भेदज्ञान तत्वनिर्णय पूर्वक वस्तु स्वरूप का ज्ञान करता है, द्रव्यदृष्टि द्वारा ममल स्वभाव की साधना करता है, उसको यह कोई भी भावक भाव प्रभावित नहीं करते, सब अपने आप गलते विलाते क्षय होते जाते हैं।
४९. आशा भाव, ५०. स्नेह भाव, ५१. लाज भावआसा अत्रित सहियं, आसा परिनाम नंत गलियं च। आवरनं नहु दिटुं, अप्प सहावेन कम्म गलियं च ।। ४५१ ॥ अस्नेहं असत्यसहियं, अस्नेहं परिनामपज्जावमुक्कं च। आवरनं न उपत्ती, ममल सहावेन अस्नेह विलयंति ॥ ४५२ ॥ लाजं अनित दिडं, अनित सहकार लाज गलियं च। आवरनं नहु उत्तं, सुख सहावेन लाज गलियं च ॥ ४५३॥
अन्वयार्थ - (आसा अनित सहियं) आशा जो नाशवान है, उस सहित हो रहे हो (आसा परिनाम नंत गलियं च) आशा संबंधी समस्त भाव गल जाने * वाले हैं (आवरनं नहु दि8) इस आवरण को मत देखो (अप्प सहावेन कम्म * गलियं च) आत्म स्वभाव से सब कर्म गल जाते हैं।
(अस्नेहं असत्य सहिय) स्नेह जो झूठा है. उस सहित हो रहे हो (अस्नेह
परिनाम पज्जाव मुक्कं च) स्नेह के परिणाम पर्याय से होते हैं. जो छट जाने वाले हैं (आवरनं न उपत्ती) इस आवरण की उत्पत्ति ही नहीं होती (ममल सहावेन अस्नेह विलयंति) ममल स्वभाव का लक्ष्य होने पर सब स्नेह विला जाता है।
(लाजं अनित दिट्ठ) लाज के भाव क्षणभंगुर हैं उन्हें देख रहे हो (अनित सहकार लाज गलियं च) इस क्षणभंगुर का सहकार क्यों करते हो, यह लाज गल जाने वाली है (आवरनं नह उत्तं) इस आवरण की चर्चा ही मत करो (सुद्ध सहावेन लाज गलियं च) अपने शुद्ध स्वभाव को देखो, यह सारी लाज गल जाती है।
विशेषार्थ-४९,५०,५१, आशा, स्नेह, लाज भाव- यह आशा, स्नेह, लाज के भाव सब अंतरंग में उठने वाले परिणाम है, जो सब क्षणभंगुर नाशवान झूठे हैं। आशा रूपी नदी में मनोरथ रूपी जल बहता है, जिसमें तृष्णा की तरंगें उठती हैं, राग की गहराई होती है, तर्क वितर्क के पक्षी उड़ते हैं, चिंता रूपी किनारे होते हैं, इसको ज्ञानी साधक अपने आत्म स्वभाव से पार कर जाता है।
स्नेह भी झूठा होता है क्योंकि द्रव्य स्वभाव से तो कोई स्नेह करता नहीं है, पर्याय से ही स्नेह होता है, वह किसी रूप में कैसा ही हो सब छूट जाने वाला है।
लाज, शर्म, इज्जत का सवाल, लोग क्या कहेंगे? यह सब पर की अपेक्षा संसारी दृष्टि होने पर ही होती है जो सब क्षणभंगुर नाशवान है।
साधक जानता है कि शरीर भिन्न है, कर्म भिन्न है, उसका उदय उसकी अवस्था है, मेरा स्वरूप उससे सर्वथा भिन्न है। उदय काल में, संयोग-वियोग में, हर्ष-विषाद के कारण आते हैं परंतु वे मुझसे भिन्न हैं, मेरी सत्ता से भिन्न हैं, मेरे गुणों से तथा मेरी पर्याय से भिन्न हैं । मैं मेरे द्रव्य, गुण, पर्याय का ही स्वामी हूं, इस प्रकार किसी से आशा स्नेह लाज नहीं करता। आशा, स्नेह और लाज भाव पुत्र धन और यश इन तीन एषणाओं से पैदा होते हैं।
आत्मा जब ज्ञानी हुआ, तब उसने वस्तु का ऐसा स्वभाव जाना कि आत्मा स्वयं तो शुद्ध ही है। द्रव्य दृष्टि से अपरिणमन स्वरूप है। पर्याय दृष्टि से पर द्रव्य के निमित्त से रागादि रूप परिणमित होता है इसलिये अब ज्ञानी
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