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________________ गाथा-४३१-४३३ ------ -HIKHE - 长长长长长长 ---- ---- *** ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी कला है । दु:ख से छूटना हो व सुखी होना हो तो परभावों से भिन्न आत्मा को जानकर उसी का अभ्यास करना योग्य है। आत्मा के आश्रय से * प्रगट हुए ज्ञान द्वारा ही सही निर्णय होता है। ३२.माया भावमाया सहावसहियं,माया परिनामसयल गलियं च। आवरनं नहु दिई, न्यानं अन्मोय कम्म विपनं च ॥ ४३१॥ अन्वयार्थ - (माया सहाव सहियं) माया स्वभाव सहित होना उचित नहीं (माया परिनाम सयल गलियं च) माया के परिणाम सारे गल जाने वाले हैं (आवरनं नहु दिट्ठ) यह आवरण को मत देखो (न्यानं अन्मोय कम्म विपनं च) ज्ञान का आलम्बन लेने से सारे कर्म क्षय हो जाते हैं। विशेषार्थ -३२. मायाभाव - छल, कपट, बेईमानी, मायाचारी, विश्वासघात यह सब माया का स्वरूप है। माया कषाय राग रूप परिणाम में आती है । यह सब भाव विला जाने वाले, छूट जाने वाले हैं । आत्मा का स्वभाव आर्जव, सरल, सहज स्वभाव है, ज्ञान स्वभाव का आलंबन लेने से सारे कर्म क्षय हो जाते हैं। जिसके मन के विचार, वचन की प्रवृत्ति और काय की चेष्टा और हो, ऐसे पापों को गुप्त रखने वाले मायाचारी पुरुष का दूसरों को दिखाने के लिये अथवा मान बड़ाई, लोभादि के अभिप्राय से व्रत धारण करना निष्फल है, इससे तिर्यंचादि नीच गति की प्राप्ति होती है। यदि आत्मा को शांति चाहिये तो अंतर्मुख वृत्ति और अनुभव ज्ञान द्वारा आत्मा की ओर झुककर यह निर्णय करना कि औपाधिक भाव हैं वह सब छोड़ने योग्य हैं ऐसा समझें तो निमित्त बुद्धि व रागबुद्धि छूटकर स्वभाव बुद्धि होती है, धर्म होता है। ३३. मोह भावमोहं संसार सहियं, मोहं परिनाम सयल गलियं च। आवरनं नहु दिह, दर्सन दिस्टिच मोह गलियं च ॥ ४३२॥ अन्वयार्थ- (मोहं संसार सहियं) संसारी मोह सहित होना (मोहं परिनाम सयल गलियं च) मोह के परिणाम सारे गल जाने वाले हैं (आवरनं * नहु दिट्ठ) यह मोहनीय कर्म के आवरण को मत देखो (दर्सन दिस्टि च मोह *** * * * ** गलियं च) सम्यक्दर्शन की दृष्टि से सारा मोह भाव गल जाता है। विशेषार्थ-३३.मोहभाव-पर को अपना मानना ही मोह है, मोह का विस्तार ही संसार है। संसार के भाव अर्थात्, शरीर, धन, परिवार के भाव ही मोहभाव हैं । इस मोहभाव से ही दु:ख, चिंता, भय, घबराहट, शंका, कुशंका होती है, यह अज्ञान भाव हैं। आत्मा का पर से कोई संबंध ही नहीं है, वर्तमान जीवन में ही जो संयोग मिला है इसमें अपनत्व मानना अज्ञान है। मोह के सारे परिणाम गल जाने वाले हैं। यह मोहनीय कर्म के उदय जनित मोहभाव सब पर्यायावरण है इसे मत देखो, अपने शुद्धात्म स्वरूप को देखो, 6 सम्यक्दर्शन की दृष्टि होते ही यह सब मोह भाव गल जाते हैं। भेद विज्ञान के द्वारा मोहभाव का अभाव होता है। इस शरीरादि से भिन्न मैं एक अखंड अविनाशी चैतन्य तत्त्व भगवान आत्मा हूं. यह शरीरादि मै नहीं और यह मेरे नहीं हैं, ऐसा अनुभव प्रमाण निर्णय होने पर मोह भाव विला जाता है। निज शुद्धात्म स्वरूप में मिथ्यात्व मोह रागादि भाव हैं ही नहीं, ऐसी सम्यकदर्शन की दृष्टि होने पर मिथ्यात्व मोह विला जाता है। संयोगों का लक्ष्य छोड़कर अपने त्रिकाली ज्ञायक निर्विकल्प चैतन्य तत्त्व ध्रुव स्वभाव की दृष्टि होने पर समता शांति आनंद प्रगट होता है। ३४. व्यसन भावविसनं सहाव संजुत्तं, विसनं सहकार नंत गलियं च। आवरनं नहु पिच्छदि, न्यान सहावेन कम्म विलयति ॥ ४३३ ।। अन्वयार्थ- (विसनं सहाव संजुत्तं) व्यसनों के भाव में संयुक्त हो रहे हो (विसनं सहकार नंत गलियं च) व्यसन संबंधी अनंतभाव सब गल जाने ॐ वाले हैं (आवरनं नहु पिच्छदि) इस आवरण के पहिचानने में मत लगो (न्यान सहावेन कम्म विलयंति) ज्ञान स्वभाव से सारे कर्म विला जाते हैं। विशेषार्थ-३४. व्यसन भाव- जुआं खेलना, मांस खाना, शराब पीना, चोरी करना, शिकार खेलना, वेश्यागमन व परस्त्री सेवन यह सात ॐ व्यसन कहलाते हैं, ऐसी और भी अनेक प्रकार की आदतों के भाव में लगना दुर्गति का कारण है, यह सब व्यसन के परिणाम, अपने आत्म स्वभाव की दृष्टि से आत्मकल्याण की भावना से, ज्ञान स्वभाव में रहने पर सब गल जाते २४६ 祭茶茶茶茶 ® 15--- 长长长长苏岩 SHESENA
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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