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________________ गाथा-४३४-४३६----- E-5-16: KEE * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी हैं, विला जाते हैं। अपने सिद्ध स्वरूप में न कोई कषाय है, न इंद्रियां * हैं, न शरीर है, उसमें व्यसन भाव होना संभव ही नहीं है। यह सब अज्ञान जनित कर्मोदय परिणाम ज्ञान स्वभाव से छूट जाते हैं। साधक को इन सब भावक भावों से सावधान रहना चाहिये, इन भावों में जुड़ना नहीं चाहिये। बाह्य में व्यसन आदिका त्याग होने पर यदि इन भावों में जुड़ता है तो अपराधी है, मानसिक व्यभिचार महान पाप है। ३५. विकथा भावविकहा सहाव सहियं, विकहा सभाव दोष गलियंच। आवरनं नहु पिच्छदि, न्यानं संजुत्त विकह विलयति ॥ ४३४ ॥ अन्वयार्थ - (विकहा सहाव सहियं) विकथाओं के भाव सहित होना (विकहा सभाव दोष गलियं च) विकथा स्वभाव के सब दोष गल जाने वाले हैं (आवरनं नहु पिच्छदि) इस आवरण को मत देखो जानो (न्यानं संजुत्त विकह विलयंति) अपने ज्ञान स्वभाव में लीन होने पर विकथा के भाव विला जाते हैं। विशेषार्थ-३५. विकथा भाव - राज कथा, चोर कथा, स्त्री कथा, भोजन कथा इन चार तरह की चर्चाओं के भाव विकथा भाव कहलाते हैं। यह चारों विकथा अधर्म की जड़ हैं। राग-द्वेष के वशीभूत होकर अपने व दूसरों के मन को रंजायमान करने के लिये विकथायें कही जाती हैं। विकथा संबंधी दोषभाव सब गल जाने वाले, विला जाने वाले हैं। यह अज्ञान जनित परिणामों को मत देखो । अपने ज्ञान स्वभाव में लीन होने पर सब विकथा भाव विला जाते हैं। अनादिकाल से आत्मा ने अपना स्वरूप नहीं छोड़ा है परंतु भ्रांति के कारण छोड़ दिया है ऐसा उसे भासित हुआ है। अनादिकाल से चेतनतत्त्व आत्मा तो शुद्धता से भरा है, ज्ञायक स्वरूप ही है, आनंद स्वरूप ही है। उसमें अनंत चमत्कारिक शक्ति भरी है, ऐसे ज्ञायक आत्मा को सबसे भिन्न, परद्रव्य से भिन्न, पर भावों से भिन्न जानना ही साधकपना है। इसके लिये भेदज्ञान का अभ्यास करना चाहिये । स्व स्वरूप के आश्रय से कर्मोदय जन्य * भाव, पर्यायावरण सब विला जाता है। ३६.इंद्रिय भावइंदी सहाव सहियं, इंदी परिनाम दोस विरयंति। आवरनं नहु पिच्छदि, न्यान सहावेन कम्म संविपनं ॥ ४३५॥ अन्वयार्थ - (इंदी सहाव सहियं) इंद्रिय के भाव सहित हो रहे हो (इंदी परिनाम दोस विरयंति) इंद्रिय संबंधी भाव विकार सब छूट जाने वाला है (आवरनं नहु पिच्छदि) इस कर्मावरण को मत देखो जानो (न्यान सहावेन कम्म संषिपनं) ज्ञान स्वभाव से सब कर्म क्षय हो जाते हैं। विशेषार्थ-३६.इंद्रियभाव - शरीर संयोग होने से पांच इंद्रिय के विषय भोग संबंधी भाव होना इंद्रिय भाव है। आत्मा अतीन्द्रिय आनंद स्वरूप है। यह सब कर्मावरण विकार भाव छूट जाने वाला है, इसको मत देखो जानो, अपने ज्ञान स्वभाव के आलम्बन से यह सब विला जाते हैं। सामने दिखने वाली वस्तु और देखने वाला दोनों भिन्न-भिन्न होते हैं. इनमें एकत्वपने की मान्यता ही अज्ञान मिथ्यात्व है। कोई भी भाव होने के समय ज्ञायक ही यह जानता है कि यह भाव हो रहे हैं । बगैर स्वयं की उपस्थिति, चेतना के अभाव में यह कुछ जाने ही नहीं जाते। जिसने भेदज्ञान पूर्वक निज स्वरूप को जाना है, वह जानता है कि यह सब भाव, क्रिया, पर्याय विला जाने वाली है। इनमें जुड़ना अच्छा-बुरा मानना ही पुन: कर्मबंध का कारण है। साधक अपने ज्ञान स्वभाव की साधना करता है जिससे यह सब भाव विला जाते हैं। प्रश्न -जब सब भाव विला जाने वाले हैं फिर होते ही क्यों हैं? समाधान - पूर्व में स्वयं की अज्ञान मिथ्यात्व दशा में जो कर्म बंध हुआ है, उसके उदय से यह सब भाव क्रिया पर्याय होती है लेकिन यह कोई भी स्थायी नहीं है। जीव आत्मा और यह भाव एक नहीं हैं, सब भिन्न हैं, जो अपने आप अपने समय पर उदय में आकर विला जाने वाले हैं । अपने ज्ञान स्वभाव में रहने पर यह सब क्षय हो जाते हैं। ३७. रसना भाव,३८. स्पर्शन भावरसन सहाव संजुत्तं, रसनं परिनाम भाव विरयंति। आवरन नहु दिहं, अतींदी न्यान कम्म संषिपनं ।। ४३६ ॥ 8 -k RELA 1231-125-15-3-5 २४७
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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