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________________ - ------- - श्री उपदेश शुद्ध सार जी गाथा-४२९,४३०HHH-- --- 长长长长长 E-15-16 मूर्छा यह सब लोभ के ही परिणाम हैं। शरीर व इंद्रियों के संबंध से ही भोग्य पदार्थों में लोभ होता है, धन वैभव आदि इकट्ठा करना इसका ही * परिणाम है। लोभ, पाप का बाप है, लोभ से ही क्रोध होता है। यह कषाय रूप * परिणाम अज्ञान दशा में ही होता है। ज्ञान स्वभाव आत्मा में यह है नहीं और जड़ पुद्गल अचेतन में होता नहीं, यह राग के अंतर्गत आता है, यह सब पर्यायावरण है, न इसे देखो जानो, न इसमें जुडो, यह लोभ जनित जितने भी परिणाम हैं सब गल जाने वाले हैं, विला जाने वाले हैं। सूक्ष्म लोभ दसवें गुणस्थान तक ही होता है, इसके बाद तो होता ही नहीं है, अपने ज्ञान स्वभाव में रहो, यह सब कर्म गल जाने वाले हैं। जैसे-गोबर मिलने पर गरीब स्त्रियां खुश हो जाती हैं और धन वैभव मिलने पर सेठ साहूकार प्रसन्न हो जाते हैं परंतु गोबर और धनादि में कोई अंतर नहीं है। एक बार आत्मा का अनंत चतुष्टयमयी रत्नत्रय स्वरूप अनंत निधि का भंडार देख लो तो बाह्य धन वैभव धूल का ढेर भासित हो, उसकी निर्मूल्यता भासित हो। मुझे बाहर का कुछ चाहिये, ऐसा मानने वाला भिखारी है । मुझे तो अपना आत्मा ही प्राप्त करना है, संसार का कुछ नहीं चाहिये, ऐसा मानने वाला बादशाह है। आत्मा अचिन्त्य शक्ति का स्वामी है, जिस क्षण ऐसा भाव जागृत होता है उसी क्षण यह सब लोभ के भाव विला जाते हैं, जागृत चैतन्य ज्योति आनंद स्वरूप अनुभव में आ जाता है। चक्रवर्ती को अपनी विशाल संपत्ति छोड़ना सरल है और भिखारी को अपना एक भिक्षापात्र छोड़ना कठिन लगता है । आत्म स्वरूप को समझने के पश्चात् चक्रवर्ती की संपत्ति और भिक्षापात्र दोनों एक समान पुद्गल भासित होते हैं। यही लोभ का विसर्जन होता है। ३०.क्रोध भावकोह सहाव संजुत्त, कोहं परिनाम नन्त विरयंति। आवरनं नहु पिच्छं, न्यान सहावेन कोह विलयंति ॥ ४२९ ॥ अन्वयार्थ - (कोह सहाव संजुत्तं) क्रोध के स्वभाव में संयुक्त हो रहे हो (कोहं परिनाम नन्त विरयंति) क्रोध के अनंत परिणाम छूट जाने वाले हैं * (आवरनं नहु पिच्छं) इस आवरण को मत देखो, जानो (न्यान सहावेन कोहद * विलयंति) अपने ज्ञान स्वभाव में रहो, यह सब क्रोधभाव विला जाने वाले हैं। विशेषार्थ-३०. क्रोध भाव - गस्सा. बैर. विरोध, घणा.ईया, निन्दा, बुराई यह सब भाव क्रोध के अंतर्गत आते हैं. क्रोध के भाव आत्मा का पतन करने वाले, आत्मा को जलाने वाले हैं, पर से जब तक स्वार्थ, संबंध, लगाव, अपेक्षा रहती है तब तक क्रोध भाव होते हैं । लोभ और मान की विशेषता में क्रोध बहुत जल्दी आता है। मनमानी न होने से क्रोध भाव आते हैं। पंचेन्द्रिय के विषय राग की पूर्ति न होने से क्रोध भाव आते हैं। यह सब कर्मोदय जन्य संयोगिक परिणाम हैं जो सब छूट जाने वाले हैं । आत्मा का स्वभाव तो शांत, क्षमा रूप है, अपने ज्ञान स्वभाव, ममल भाव में रहने से सारे क्रोध भाव विला जाते हैं। ___ सारा जगत ज्ञान का ज्ञेय है । अनुकूलता-प्रतिकूलता कुछ नहीं है, इस अभिप्राय में दृष्टि अभेद होनी चाहिये । दृष्टि में कोई राग की संधि नहीं होनी चाहिये । अभिप्राय में इच्छा व दीनता नहीं होना चाहिये तो पर से लाभ-हानि की मान्यता नहीं होगी। लाभ-हानि की मान्यता मिटने पर क्रोध भाव का अभाव हो जायेगा। ३१.मान भावमान सहाव संजुत्तं, मानं सहकार नन्त विरयंति । आवरनं नहु जुत्तं, न्यान संजुत्त मान विलयति ॥ ४३०॥ अन्वयार्थ - (मान सहाव संजुत्तं) मान स्वभाव में संयुक्त हो रहे हो (मानं सहकार नन्त विरयंति) मान से संबंधित अनंत प्रकार के भाव छट जाने वाले हैं (आवरनं नहु जुत्तं) आवरण में मत जुडो (न्यान संजुत्त मान विलयंति) अपने ज्ञान स्वभाव में लीन होने से सब मानभाव विला जाते हैं। विशेषार्थ-३१.मानभाव-अहंकार, मद, घमंड, मत्सर, अभिमान यह सब मान कहलाते हैं। यह सब द्वेष के अंतर्गत आते हैं, जो चारित्र मोहनीय के उदयानुसार होते हैं, यह सब विला जाने वाले हैं। इस कर्मावरण में मत जुडो, अपने ज्ञानभाव में लीन रहो तो यह सब मान भाव विला जायेंगे। साधक को भाव क्रिया, पर्याय से भिन्न अपने चैतन्य स्वरूप, ममल स्वभाव, धुवतत्त्व का लक्ष्य और आश्रय रखना चाहिये । पर द्रव्य की ओर की वृत्ति अशुभ हो चाहे शुभ परंतु वह आत्मा नहीं है । स्वरूप से अनुभव में आता हुआ ज्ञान ही आत्मा है, ऐसे ज्ञान के स्व संवेदन की कला ही मोक्ष की 米等长长长长长卷 长长长长长长 २४५ ** * ** 1-1--
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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