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________________ गाथा-४२८*** * * * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी व्रत, जप, तप से आत्म प्राप्ति होगी, वह जिस प्रकार शल्य है उसी * प्रकार शास्त्राभ्यास से आत्मा प्राप्त होगी, ऐसी जिसकी मान्यता है वह भी 长沙房際茶系 ॐ शल्य है। आत्मवस्तु की ओर दृष्टि करने पर ही आत्मा की प्राप्ति होती है, यदि अपने चैतन्य स्वरूप का महत्व समझ में आयेगा तो पर का महत्व उड़ जायेगा फिर भले ही इंद्र का इंद्रासन हो या चक्रवर्ती का राज्य हो किन्तु उनका महत्व भासित नहीं होगा तभी इन शल्यों से छुटकारा होता है। कहा भी है चक्रवर्ती की संपदा,इंद्र सरीखे भोग । काकवीट सम लखत हैं, सम्यक दृष्टि लोग। प्रश्न-नि:शल्य होने का उपाय क्या है? समाधान - भेदज्ञान, तत्व निर्णय द्वारा वस्तु स्वरूप को जानकर द्रव्य दृष्टि होने पर निःशल्य हो सकते हैं। प्रश्न-द्रव्य दृष्टि कैसे होती है? समाधान - द्रव्य को उसके मूल स्वभाव से जानने पर द्रव्यदृष्टि होती है। जैसे द्रव्य छह हैं - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल । इनमें चार द्रव्य तो परिपूर्ण शुद्ध ही हैं। जीव और पुद्गल, दो द्रव्य ही- द्रव्य गुण से शुद्ध होते हुए भी पर्याय में अशुद्धि है। उसका कारण अनादि अज्ञान, मिथ्यात्व एक क्षेत्रावगाह निमित्त-नैमित्तिक संबंध है। इसी से यह संसार परिभ्रमण चल रहा है। इन दोनों द्रव्यों को इनके स्वभाव से जानकर तद्रूप दृष्टि हो जाना ही द्रव्य दृष्टि है। १.जीव द्रव्य-स्वभाव से सिद्ध के समान शुद्ध, अशरीरी, अविकारी, निरंजन शुद्धात्मा है और यही समस्त जीवों का स्वरूप है, चाहे वह सिद्ध हो या संसारी निगोदिया, सब जीव स्वभाव से सिद्ध के समान हैं। मैं सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा, ध्रुवतत्त्व ममल स्वभावी हूं, ऐसा अनुभूति युत निर्णय करने से समभाव प्रगट होता है। २. पुद्गल द्रव्य-पुद्गल स्वभाव से शुद्ध परमाणु रूप है, जितना 4 दिखाई देने वाला जगत का परिणमन है वह सब पुद्गल परमाणुओं का स्कंध रूप परिणमन है, जो सब क्षणभंगुर नाशवान परिवर्तनशील है । जो स्थूल * रूप शरीर, धन, मकान आदि दिखाई देते हैं, यह भ्रांति है तथा सूक्ष्म रूप *मन में भाव आदि चलते हैं वह भ्रम है। इस प्रकार यथार्थ निर्णय करने से शुद्ध दृष्टि होती है, इसी को द्रव्यदृष्टि कहते हैं, जो अपने ध्रुव स्वभाव से हटती नहीं है। ऐसी द्रव्यदृष्टि होने पर फिर कोई शल्य विकल्प होते ही नहीं हैं क्योंकि जब तक पर वस्तु की मान्यता महत्व है तब तक मोह, राग-द्वेष होते हैं। जहां मोह, राग-द्वेष हैं वहां शल्य विकल्प होते हैं, जब द्रव्य दृष्टि हो जाती है तब साधक, शुद्ध दृष्टि, समभाव में रहता है। प्रश्न - यह ममल स्वभाव कैसा है? समाधान - ममल स्वभाव अपना सत्स्वरूप है अर्थात् चैतन्य स्वरूप समस्त मोह, राग-द्वेषादि कर्ममलों से रहित है जिसमें अज्ञान, मोह, राग-द्वेषादि कर्ममल न कभी थे,न हैं, न कभी हो सकते, ऐसे अपने चैतन्य स्वरूप को जानना ही ममल स्वभाव है। प्रश्न- यह ममल स्वभाव कैसे उपलब्ध होता है? समाधान - अपनी प्रज्ञा छैनी को सूक्ष्म बनाने से यह ममल स्वभाव प्रगट होता है, इसके लिये पहले भेदज्ञान फिर तत्व निर्णय द्वारा वस्तु स्वरूप को जाना जाता है। वस्तु स्वरूप को जानने पर द्रव्य दृष्टि होती है, द्रव्यदृष्टि होने पर ज्ञान-अज्ञान की सूक्ष्म संधि का भेदन किया जाता है अर्थात् जितना भी इंद्रियज्ञान, मन बुद्धि का क्षयोपशम ज्ञान है यह सब अज्ञान है, यह आत्म ज्ञान नहीं है। इन सबसे परे जो स्वयं को स्वयं की अनुभूति है वही आत्म ज्ञान है जो चैतन्य स्वरूप ममल स्वभाव है। यह स्वयं अनुभूति का विषय है जो अवक्तव्य है, इसकी साधना ही अतीन्द्रिय आनंद मुक्ति है। प्रश्न- क्रोध, मान, माया, लोभ आदि भाव क्या हैं,कैसे होते हैं? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं २९. लोभ भावलोभ सहाव संजुत्त, लोभंसहकार परिनाम गलियंच। आवरनं नहु पिच्छं, न्यान सहावेन कम्म गलियं च ॥ ४२८॥ अन्वयार्थ - (लोभ सहाव संजुत्तं) लोभ स्वभाव में जुड़ रहे हो (लोभं सहकार परिनाम गलियं च) यह लोभ सहकारी परिणाम सब गल जाने वाले हैं (आवरनं नहु पिच्छं) इस आवरण को मत देखो (न्यान सहावेन कम्म गलियं च) ज्ञान स्वभाव से यह सब कर्म गल जाते हैं। विशेषार्थ-२९. लोभ भाव-आशा, तृष्णा, चाह, इच्छा, पकड, 0 1-1-E-MEE
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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