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________________ *********** श्री उपदेश शुद्ध सार जी गाथा-४२६,४२७* *-31--4HEHE - - - 器, 长长长长;各类 -- --- - भाव क्षय हो जायेंगे। २७. पर्यायी भावपज्जाव भाव संजुत्तं, पज्जय सहकार सर्व गलियं च । आवरनं नहु दिडं, दंसन दिट्ठी च पज्जाव विलयंति ॥ ४२६ ॥ अन्वयार्थ - (पज्जाव भाव संजुत्तं) पर्यायी भाव में संयुक्त हो रहे हो (पज्जय सहकार सर्व गलियं च) यह सब पर्यायों का सहकार गल जाने वाला है (आवरनं नहु दिट्ठ) पर्यायावरण को मत देखो (दंसन दिट्ठी च पज्जाव विलयंति) दर्शन दृष्टि से सब पर्यायें विला जाती हैं। विशेषार्थ-२७. पर्याय भाव - संसारी जीव जिस शरीर रूपी पर्याय में होते हैं, उसी के राग मय हो जाते हैं, साधक को इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि यह पर्यायें तो सब क्षणभंगुर हैं, कोई भी पर्याय रहने वाली नहीं है हैं। पर्याय दो प्रकार की होती है- १. अर्थ पर्याय, २. व्यंजन पर्याय । जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों में अर्थ पर्याय और व्यंजन पर्याय दोनों होती हैं । वैभाविक शक्ति के कारण विभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय रूप तथा विभाव गुण व्यंजन पर्याय रूप परिणमन होता है। देवगति नाम और देवायु के उदय से देव होते हैं। मनुष्यगति नाम और मनुष्यायु के उदय से मनुष्य होते हैं। तिर्यंचगति नाम और तिर्यंचायु के उदय से तिर्यंच होते हैं। नरकगति नाम और नरकायु के उदय से नारकी होते हैं। इनमें देव, मनुष्य और नारकी पंचेन्द्रिय ही होते हैं । तिर्यंच तो कुछ पंचेन्द्रिय होते हैं और कुछ एकेन्द्रिय,द्वीन्द्रिय,त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय भी होते हैं। यहां ऐसा तात्पर्य ग्रहण करना चाहिये कि चार गति से विलक्षण स्वात्मोपलब्धि जिसका लक्षण है ऐसी जो सिद्ध गति उसकी भावना से रहित जीव अथवा सिद्ध सदृश निज शुद्धात्मा की भावना से रहित जीव जो चतुर्गति । नामकर्म उपार्जित करते हैं, उसके उदय वश वे देवादि गतियों में उत्पन्न होते हैं इसलिये यह पर्यायी भाव में मत जुड़ो, यह सब पर्यायी भाव विला जाने वाले हैं, इस पर्यायावरण को मत देखो। अपने ममल स्वभाव में रहो, द्रव्यदृष्टि से देखो तो यह सब पर्यायें विला जाती हैं। यह आत्मा और यह गुण, यह आत्मा और यह पर्याय, ऐसे भेद का, * अभेद आत्मा में अभाव है । आत्मा में जो महिमा और महानता भरी है उसे २४३ भगवान घोषित करते हैं कि अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंत आनंद, अनंत प्रभुता आदि अनंत स्वभाव का एक रूप ऐसा जो स्वभाव रूप स्वद्रव्य वह निर्विकल्प वस्तु मात्र है। अनंतानंत स्वभाव से भरपूर भगवान अभेद एक रूप आत्मा ही ममल स्वभाव होने से उपादेय रूप है। आत्मा ज्ञानानंद स्वरूप ध्रुव वस्तु है उसे पर्याय पकड़ती है। २८. शल्य भावसल्यंचभावसहियं, सल्यं परिनाम सयल गलियंच। आवरनं नहु दिहं, न्यान सहावेन सल्य तिक्तं च ॥४२७॥ अन्वयार्थ- (सल्यं च भाव सहियं) शल्यों के भाव सहित हो रहे हो (सल्यं परिनाम सयल गलियं च) शल्यों के सारे परिणाम गल जाने वाले हैं (आवरनं नहु दि8) आवरण को मत देखो (न्यान सहावेन सल्य तिक्तं च) ज्ञान स्वभाव से सब शल्ये छूट जाती हैं। विशेषार्थ-२८. शल्यभाव - वे परिणाम जो कांटे की तरह छिदते हैं उन्हें शल्य कहते हैं। शल्य तीन होती हैं- माया, मिथ्या, निदान । जो संशय की स्थिति में होती हैं। १.माया शल्य-ऐसा नहीं ऐसा होता, प्राप्त उपलब्धि में मन का संतुष्ट न होना, विशेष चाह के भाव । यह शल्य साता में नहीं रहने देती और यह लोभ की विशेषता में होती है। २.मिथ्या शल्य- ऐसा न हो जाये, किसी भी कार्य को करते हुए कुछ भी होते हुए, मन का हमेशा दुविधा में रहना। यह शल्य मोह की विशेषता में होती है और हमेशा भयभीत रखती है. यह शल्य निश्चिन्त नहीं रहने देती। ३. निवान शल्य-ऐसा करना है ऐसा करूंगा, भविष्य की योजना बनाते रहना, वर्तमान में संतुष्ट न होना । मन का संकल्पों में दौड़ लगाना, यह शल्य अहं की विशेषता में होती है। यह शल्य शांत समता में नहीं रहने देती। "निःशल्यो व्रती"जो निःशल्य होता है वही संयमी, त्यागी, अणुव्रती होता है। शल्य के सारे परिणाम विला जाने वाले हैं,यह सब पर्यायावरण है। छठे गुणस्थान में यह शल्ये होती ही नहीं हैं। इन शल्यों में मत जुडो, अपने ज्ञान का आलंबन लो, ममल स्वभाव में रहो, यह सारी शल्ये छूट जायेंगी।
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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