________________
*-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
हैं। राग के उदय रूप यह सब अनुमति भाव गल जाने वाले हैं। इस आवरण में जुड़ो, अपने ज्ञान स्वभाव में रहो। होश पूर्वक अपने स्वरूप का स्मरण, ध्यान रखो, यह सारे कर्म गल जायेंगे, विला जायेंगे ।
कृत, कारित, अनुमति के भाव छठवें गुणस्थान तक होते हैं। सातवें गुणस्थान से ऊपर यह भाव होते ही नहीं हैं। यह सब भाव मोह, राग-द्वेष रूप मोहनीय कर्मोदय जन्य हैं। अपना किसी से क्या संबंध है ? जब आत्म स्वरूप सिद्ध के समान अशरीरी, अविकारी, शुद्धात्म स्वरूप है फिर यह करने कराने अनुमति देने के भाव अपने कैसे हो सकते हैं ? अपना स्वरूप तो राग-द्वेष से रहित निर्विकार समदर्शी परमात्मा है, अपने ज्ञानानंद स्वभाव में मगन रहो, इसी से सर्व कर्म क्षय हो जायेंगे ।
T
ज्ञानी साधक कितनी भी अनुकूलता - प्रतिकूलता की परिस्थिति हो, विपरीत कर्मोदय हो, उनसे किंचित् भी चलायमान नहीं होता । तीव्र से तीव्र अशुभ परिणाम हो उनसे भी ध्रुव आत्मा विचलित नहीं होता और एक समय की पर्याय से भी ज्ञानी आत्मा चलायमान नहीं होता। ऐसे अगाध सामर्थ्यवान ध्रुव आत्मा को लक्ष्य में लेने से भव भ्रमण का अंत आता है।
जिस प्रकार केवली भगवान पर के कर्ता या भोक्ता नहीं हैं, मात्र ज्ञाता हैं, उसी प्रकार सम्यकदृष्टि भी पर का कर्ता या भोक्ता नहीं, मात्र ज्ञाता ही है । राग आता है उसका भी ज्ञाता ही है। असंख्य प्रकार के शुभ-अशुभ भाव होते हैं, वे सहज हैं, उनका कर्ता जीव नहीं है। जिस समय जिस प्रकार का राग आता है, उस प्रकार के संयोग की ओर सम्यक्त्वी का उपयोग जाता है परंतु उसका भी वह ज्ञाता है ।
शुभाशुभ भावों से बचने का उपाय यही है कि आत्मा में वे भाव हैं ही नहीं, ऐसे ममल स्वभाव की दृष्टि करना ।
२२. भोग भाव, २३. उपभोग भाव
भोगं सहाव सहियं भोगं परिनाम भाव गलिये च
.
"
आवरन नहु उस न्यान सहावेन भोग गलिबं च ।। ४२१ ।। उवभोग भाव जुत्तं, उवभोग परिनाम सव्व गलियं च । आवरनंनहु पिच्छं, न्यान सहावेन कम्म संविपनं ।। ४२२ ।। अन्वयार्थ - (भोगं सहाव सहियं) भोग के स्वभाव सहित हो रहे हो
**
२४०
गाथा ४२१, ४२२ ****** (भोगं परिनाम भाव गलियं च ) भोग के परिणाम यह भावक भाव सब गल जाने वाले हैं (आवरनं नहु उत्तं) इस आवरण की बात ही मत कहो ( न्यान सहावेन भोग गलियं च ) ज्ञान स्वभाव से सारे भोग भाव गल जाते हैं।
(उवभोग भाव जुत्तं) उपभोग के भाव में जुड़ रहे हो (उवभोग परिनाम सव्व गलियं च ) उपभोग के सर्व परिणाम गल जाने वाले हैं (आवरनं नहु पिच्छं) इस आवरण को मत पहिचानो, क्या है, कैसा है (न्यान सहावेन कम्म संषिपनं) अपने ज्ञान स्वभाव में रहो तो यह सब कर्म क्षय हो जायेंगे ।
विशेषार्थ - २२. भोगभाव - भोग पांच इंद्रियों से मन द्वारा होते हैं। भोग भोगने में राग भाव की विशेषता रहती है। भोग भोगने के भाव सब अज्ञान जन्य हैं क्योंकि आत्म स्वरूप शरीर, मन, वाणी, इंद्रिय, कर्मों से परे है, उसमें यह कुछ हैं ही नहीं, फिर क्या भोगेगा ? यह सब भोग भाव कर्मोदय जन्य विला जाने वाले हैं, इनकी तो बात भी नहीं करना चाहिये। अपने ममल स्वभाव ध्रुवतत्त्व सिद्ध स्वरूप शुद्धात्मा को देखो जो अतीन्द्रिय आनंद का भोक्ता परमानंद मयी परमात्मा है, अपने आत्मानंद में रहने से सारे कर्मक्षय हो जाते हैं।
२३. उपभोग भाव - जो एक बार भोगा जा सके उसको भोग कहते हैं, जो बार - बार भोगा जावे उसे उपभोग कहते हैं, जैसे-भोजन पान आदि भोग पदार्थ हैं । स्त्री, आभूषण, वस्त्र आदि उपभोग पदार्थ हैं। यह सर्व ही भोग-उपभोग शरीर के द्वारा शरीर में ही भोगे जाते हैं। यह भोग-उपभोग के भाव तीव्र विषयाशक्ति राग भाव से होते हैं, यह सब भाव गल जाने, विला जाने वाले हैं। जब भोग्य पदार्थ होता है तब भोग भाव नहीं होता, जब भोग भाव होता है तब भोग्य पदार्थ नहीं होता, यह सब मन का ही चक्र है, इन भावों में मत जुड़ो, अपने ज्ञान स्वभाव आत्मा का लक्ष्य रखो तो यह सब कर्म क्षय हो जाते हैं।
जड़ इंद्रिय का लक्ष्य छोड़े, भाव इंद्रिय का लक्ष्य छोड़े और इंद्रियों के विषय आदि उनका लक्ष्य छोड़े तथा त्रैकालिक ध्रुव स्वभाव का लक्ष्य करे उसको साधक कहते हैं। पर्याय से, निमित्त से और विषय से जो भिन्न वर्तता है, ऐसे ज्ञान को मोक्षमार्ग कहते हैं।
एक रूप अभेद निर्विकल्प वस्तु वह स्वद्रव्य है, स्व स्वरूप है और उसमें गुण या पर्याय के भेद की कल्पना करना वह भेद कल्पना पर द्रव्य है।
*