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________________ -- E ********* श्री उपदेश शुद्ध सार जी जाते हैं, मैं अकेला रहता हूं। मुझे कुछ भी छूता नहीं, मेरे प्राणों को * कुछ भी अतिक्रांत नहीं करता, कुछ भी मेरे भीतर बदलाहट नहीं करता, मैं * तो वही रह जाता हूं, चीजें आती हैं और बदल जाती हैं। भाव, क्रिया, पर्याय * सब होते और विलाते चले जाते हैं। जिस दिन एक क्षण को भी यह ख्याल होगा, ऐसा अनुभूति में आयेगा, उसी दिन जीवन भर के लिये साक्षी ज्ञायक, सम्यक्दृष्टि ज्ञानी की स्थिति बन जायेगी। हम जब तक परतंत्र हैं, जरा भी किसी से बंधे हैं तब तक कभी आनंद को उपलब्ध नहीं हो सकते । शांत आदमी कहीं नहीं भागता, सिर्फ अशांत भागते हैं। मन जितना अशांत होगा, रात उतनी ज्यादा करवट बदली जायेगी। जितनी ही भीतर शांति होगी, निष्क्रिय चित्त होगा, मौन आत्मा होगी, उतनी ही वह मौन आत्मा शक्ति का स्रोत बन जाती है। यह जो बाहर से सारा परिणमन चल रहा है, यह पुद्गल परमाणुओं का कर्मोदय जन्य परिणमन है, मन वचन आदि भी सूक्ष्म परमाणुओं का परिणमन है। अपना ज्ञान स्वभाव, ममल स्वरूप इन सबसे भिन्न है। इस आवरण को न देखकर अपने ममल स्वभाव को देखने, उसमें लीन होने पर यह सब कर्म बंधोदय क्षय हो जाते हैं इसलिये यह किन्हीं भी भावक भाव, भाव कर्मोदय आवरण में मत जुडो, इन्हें मत देखो, अपने ममल स्वभाव में रहो यह सब कर्मोदय क्षय हो जायेगा। १९.कृत भाव, २०. कारित भाव, २१. अनुमति भावक्रितं च भाव संजुक्तं, क्रितंच कम्म गलिय सुह असुह। आवरन संक तिक्तं , न्यान परिनाम संक गलियं च ॥ ४१८ ॥ कारित सहाव संजुत्तं, कारित सहावदोष गलियं च। आवरनं नहु पिच्छं, न्यान सहावेन कारितं विलयं ॥ ४१९॥ अनुमय सहावसहिय,अनुमय सहकार भाव गलियं च। आवरनं नहु जुत्तं, न्यान सहावेन कम्म संगलियं ॥४२०॥ अन्वयार्थ - (क्रितं च भाव संजुत्तं) शरीर के द्वारा होने वाली क्रिया के भाव में जुड़ रहे हो (क्रितं च कम्म गलिय सुह असुह) यह क्रिया करने रूप सब शुभ-अशुभ कर्म गलने वाले हैं (आवरन संक तिक्तं) यह आवरण की गाथा-४१८-४२०------ -- शंका छोड़ो, ऐसा न हो जाये, यह क्या हो रहा है (न्यान परिनाम संक गलियं च) अपने ज्ञान भाव में रहो, ममल स्वभाव सिद्ध स्वरूप को देखो, यह सब क्रिया रूप शंकायें गल जायेंगी। (कारित सहाव संजुत्तं) यह कारित स्वभाव, कराने के भावों में जुड़ रहे हो (कारित सहाव दोष गलियं च) कराने के स्वभाव का दोष सब गलने वाला है (आवरनं नहु पिच्छं) आवरण को मत देखो (न्यान सहावेन कारितं विलयं) ज्ञान स्वभाव से सब कारित भाव विला जायेगा। (अनुमय सहाव सहियं) अनुमति स्वभाव सहित हो रहे हो (अनुमय सहकार भाव गलियं च) अनुमति सहकार के सब भाव गल जाने वाले हैं (आवरनं नहु जुत्तं) आवरण में मत जुडो (न्यान सहावेन कम्म संगलियं) ज्ञान स्वभाव में रहो, सारे कर्म गल जायेंगे, विला जायेंगे। विशेषार्थ- १९. कृतभाव- शरीर द्वारा क्रिया होती है और वह क्रिया शुभ-अशुभ, पुण्य-पाप रूप कहलाती है। शरीर पुद्गल जड़ है, जीव चेतन है । एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ करता नहीं, कर सकता नहीं फिर यह क्रिया करने के भाव में जुड़ना अज्ञान है। ___क्रिया रूप कर्म शुभ-अशुभ सब क्षणभंगुर, नाशवान हैं। यह क्या हो रहा है, ऐसा न हो जाये, यह अच्छा है, यह बुरा है, यह पुण्य है, यह पाप है यह सब मन के कल्पित भाव हैं। कर्मावरण में शंकित मत होओ, अपने ज्ञान स्वभाव में रहो, ममल स्वभाव को देखो, जब तुम ध्रुव तत्व शुद्धात्मा हो फिर इस क्रिया करने के भाव में मत जुडो, यह सब मन के विकल्प और कर्मोदय विला जाने वाले हैं। २०.कारित भाव - दूसरों को प्रेरित करके काम कराने के भाव यह भी सब कर्मोदय जन्य हैं, परपर्याय पर दृष्टि होने से यह भाव आते हैं। यह आवरण को मत देखो, यह सब भाव विला जाने वाले हैं। अपने ज्ञान स्वभाव, परमात्म स्वरूप को देखो, जब स्वयं परिपूर्ण शुद्ध, अरस,अरूपी, अस्पर्शी, सचिदानंद स्वरूप हो। अपने में न मन है, न शरीर है, न वाणी है, न किसी पर जीव, पर द्रव्य से कोई संबंध है। फिर इस कर्मावरण में क्यों जुड़ते हो? अपने ज्ञान स्वभाव में रहो,यह सब कर्म विला जायेंगे। २१. अनुमति भाव - किसी कार्य की सराहना करना, अनुमोदना करना या किसी को कार्य करने की अनुमति, सलाह देना यह सब राग भाव CASTOR 地市市章年年地點
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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