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*****-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
गाथा-४१६.४१७
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वयनं असुह सहावं, वयन परिनाम सयल गलियं च। आवरनं नहु जुत्तं, न्यान सहावेन कम्म गलियं च॥४१७॥
अन्वयार्थ - (मन सुभाव संजुत्तं) मन के स्वभाव में लीन होना, जुड़ जाना यही मन को सक्रिय रखता है (मन सहकार परिनाम गलियं च) मन के संकल्प-विकल्प रूप सब परिणाम गल जाने वाले हैं (आवरनं नहु पिच्छइ) इस आवरण को मत देखो, इसे जानने पहिचानने की कोशिश मत करो (न्यान सहावेन कम्म गलियं च) ज्ञान स्वभाव से सब कर्म क्षय हो जाते हैं।
(वयनं असुह सहाव) वचन रूप भी अशुभ स्वभाव है (वयन परिनाम सयल गलियं च) वचन बोलने के सारे परिणाम भी गल जाने वाले हैं (आवरनं नहु जुत्तं) इस आवरण में मत जुडो (न्यान सहावेन कम्म गलियं च) ज्ञान स्वभाव से सब कर्म क्षय हो जाते हैं।
विशेषार्थ-१७. मन, १८. वचन - जानने का भ्रम ही अज्ञान है। आत्म अनुभव ही ज्ञान है। न तो बौद्धिक ज्ञान कार्यकारी है. न भक्ति कार्यकारी है,न कर्म कार्यकारी हैं,यह तीनों मन के ही खेल हैं। जो इन तीनों के पार जायेगा वही आत्मा की अनुभूति करेगा।
कुछ बातें सीख लेना, स्मरण कर लेना,शान नहीं है। स्मृति के प्रशिक्षण से कोई पंडित हो सकता है लेकिन उससे प्रज्ञा जागृत नहीं होती है।
जो व्यक्ति जिन चीजों को, जिन बातों को, जिन कामों को बुरा मानकर उनसे बचने की, हटने की, भागने की कोशिश करता है वही सारी बातें, चौबीस घंटे वे ही सारे विचार उसको घेरे रहते हैं। सोते-जागते वह उनमें ही डूबा रहता है और जितना वह स्वयं को उनमें डूबा हुआ पाता है उतना ही भयभीत होता है, मन उतना ही सक्रिय रहता है।
जिस विचार से आपलड़ते हैं, अच्छा-बुरा मानते हैं, वही विचार आपका आमंत्रण स्वीकार कर लेता है, जिससे आप डरते हैं, लड़ते हैं, मन उन्हीं विचारों को बार-बार सामने लाता है इसलिये (विचार से) वचन से, मन से न तो डरना है, न उसे डराना है, न उसे पकड़ना है, न उसे धक्का देना है, न अच्छा-बुरा मानना है। उसे तो मात्र देखना है, निश्चय ही इसमें बड़ी सजगता और दृढ़ता की जरूरत है परंतु जिसे स्व-पर का भेदज्ञान है, जिसे आत्म
स्वरूप का बोध है, जो अपने आत्मीय आनंद निराकुल सुख शांति में रहना चाहता है, उसे यह साधना करना पड़ेगी, इतनी हिम्मत जुटाना पड़ेगी क्योंकि बुरा भी विचार आयेगा और आदतवश मन होगा कि इसे धक्का दे दें और अच्छा भी विचार आयेगा और मन होगा कि पकड़ लें परंतु दोनों स्थिति में ज्ञायक ज्ञान स्वभाव में रहना है, तभी यह मन, विचार गल जायेगा, विला * जायेगा। इस मन की यह जो पकड़ने और धक्का देने की प्रवृत्ति है, अच्छा-बुरा मानने की सहज आदत है । बोध पूर्वक, स्मृति पूर्वक, ज्ञानभाव, होश पूर्वक अगर उसे देखा जाये, साक्षी रहें तो वह वृत्ति धीरे-धीरे शिथिल हो जाती है, मन शांत होने लगता है।
जो साधक मन को वचन को देखने में समर्थ हो जाता है वह वस्तुत: मन से विचारों से मुक्त होने में भी समर्थ हो जाता है। जिसको साक्षी होना है और सत्य को जानना है उसे समस्त विचारों को समान विचार समझना होगा, न कोई अच्छा है,न कोई बुरा है क्योंकि जैसे ही हमने यह निर्णय किया कि कुछ अच्छा है, कुछ बुरा है फिर साक्षी ज्ञायक नहीं रह जायेंगे।
साक्षी ज्ञायक होने के लिये जरूरी है कि हम निष्पक्ष हों, हमारी कोई धारणा न हो, हमारी कोई कल्पना न हो, हम कुछ भी आरोपित न करना चाहते हों। जब तक विचारों के प्रति शुभ-अशुभ के निर्णय की वृत्ति होती है, यह वृत्ति चित्त के मौन और शून्य होने में बाधा बन जाती है।
मन क्या है? विचारों का प्रवाह, संकल्प-विकल्प करने वाला, माया मोह से ग्रसित क्षणभंगुर नाशवान, अशुद्ध पर्यायी परिणमन ही मन है।हमारी मान्यता का नाम ही मन है, अपने स्वरूप ममल स्वभाव से
हटकर जरा भी पर पर्याय की तरफ दहि गई वहीं मन पैदा हो जाता है, छ अज्ञान स्वभाव ही मन है। मन वचन से मुक्त होने का एक मात्र उपाय ज्ञान स्वभाव, वीतराग भाव में रहना है।
चैतन्य स्वरूप आत्मा ममल स्वभाव हमेशा परिस्थितियों के बाहर है, तू जिस दिन इस पृथकता का बोध होगा, जिस दिन जीवन में इस साक्षी ज्ञायक
भाव का उदय होगा कि मैं तो दूर खड़ा रहता हूं, धारायें आती हैं और वह जाती हैं, हवायें आती हैं और गुजर जाती हैं । धूप आती है, शीत आती है,
वर्षा आती है, गर्मी आती है और मैं दूर पृथक् खड़ा रह जाता हूं, सब चले २३८
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