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________________ 克-箪克·萨克·尔惠尔惠-帘 *-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी (राग परिनाम सयल गलियं च) राग के परिणाम तो सब गल जाने वाले हैं (आवरन भाव नहु दिट्ठ) आवरण भाव को मत देखो (दंसन दिट्ठी च राग गलियं च ) द्रव्य दृष्टि रखो तो राग गल जाता है। (दोषं च भाव जुत्तं) द्वेष के उदय में द्वेष भाव से जुड़ जाना (दोषं सहकार नन्त गलियं च ) यह द्वेष के सहकारी अनंत भाव गल जाने वाले हैं (आवरनं न उपत्ति) आवरण ही पैदा नहीं होता (न्यान बलेन दोस विलयंति) ज्ञान बल से दोष विला जाते हैं । विशेषार्थ मोहनीय कर्म के उदय से मोह, राग-द्वेषादि भाव होते हैं, जीव अपने अज्ञान से उन भावों में जुड़ जाता है, उनमें बहने लगता है। जिसे अपने स्वरूप का बोध होता है, जो वस्तु स्वरूप को जानता है वह इन भावों में नहीं जुड़ता, अपने ज्ञान बल से द्रव्य दृष्टि से वस्तु स्वरूप को देखता है तो यह सब भाव गल जाते हैं, विला जाते हैं, पुनः कर्म बंध नहीं होता । १५. रागभाव राग के उदय में स्वयं के अज्ञान से राग पूर्वक जुड़ जाना अर्थात् किसी भी सामने वाली वस्तु को अच्छा प्रिय मानने लगना ही राग भाव है और इससे कर्म का बंध होता है। जीव के संसार संयोगी दशा में इस प्रकार का निरंतर परिणमन चलता रहता है और यह सारा परिणमन स्वयमेव गलता-विलाता क्षय होता चला जाता है। सावधानी इतनी रखना है कि जो यह पूर्व कर्म बंधोदय पर्यायावरण चल रहा है, इसमें जुड़ो मत, इसे देखो मत और कुछ भी अच्छा-बुरा मत मानो, यही साधक की साधना है । द्रव्यदृष्टि से जब वस्तु स्वभाव को जान लिया कि जीव द्रव्य सब स्वभाव से सिद्ध के समान शुद्ध परमात्म स्वरूप हैं और पुद्गल द्रव्य शुद्ध परमाणु रूप है। मैं सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा ममल स्वभावी, टंकोत्कीर्ण अप्पा ध्रुवतत्त्व हूं। यह एक - एक समय की पर्याय और जगत का त्रिकालवर्ती परिणमन क्रमबद्ध निश्चित अटल है, इससे मेरा कोई संबंध नहीं है; फिर बताओ क्या अच्छा है और क्या बुरा है ? १६. द्वेष भाव द्वेष भाव के उदय में द्वेष भाव पूर्वक जुड़ जाना, इससे - - - भी कर्मबंध होता है। राग के तेरह भेद हैं - अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलन संबंधी माया और लोभ कषाय, हास्य, रति, तीन वेद (स्त्री, पुरुष नपुंसक) 器 २३७ गाथा - ४१६ -* - द्वेष के बारह भेद हैंअनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलन संबंधी क्रोध एवं मान कषाय, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा । इस प्रकार यह राग-द्वेष के अनंत परिणाम सब गल जाने वाले, विला जाने वाले हैं। इन किसी भी भाव में अच्छा-बुरा मानना ही बंधन है। राग-द्वेष मोहनीय कर्म के उदय स्वरूप पर्यायावरण से होता है। साधक को इतनी सावधानी और होश में रहना आवश्यक है कि निरंतर अपने स्वरूप का स्मरण, वस्तु स्वरूप का ज्ञान और द्रव्यदृष्टि रखे तथा अपने ममल स्वभाव में रहे तो यह सब पर्यायावरण भावक भाव अपने आप गलते विलाते चले जाते हैं। चालीस-पचास जैसे - वर्तमान जीवन का इतना समय निकल गया, वर्ष की आयु हो गई, इसमें होने वाला कर्मोदय कृत्य, भाव, क्रिया, पर्याय कहां है? सब गल गया, विला गया, आज के दिन का पूरा परिणमन भी गल गया, विला गया। अब इसमें भूल यह होती है कि जिसे आत्म स्वरूप का बोध, स्व-पर का भेदविज्ञान नहीं है, वह इन्हीं में जुड़ा अच्छा-बुरा मानता अनंत कर्मों का बंध करता है और इसी दशा में सम्यक् दृष्टि ज्ञानी साधक स्व पर विवेक के द्वारा अपने में स्वस्थ सावधान रहता है, इससे पुनः कर्मबंध नहीं होता और यह पूर्व पर्यायावरण गलता-विलाता क्षय होता चला जाता है, यही मुक्तिमार्ग है। यह कषाय रूप राग-द्वेष का परिणमन जिसके अनंत परिणाम होते हैं, यह सब अपने आप क्षय होने वाला है। नवमें, दसवें गुणस्थान तक ही चलता है इसके बाद यह कुछ भाव होते ही नहीं हैं। इस आवरण को मत देखो, द्रव्यदृष्टि रखो, ज्ञान बल से अपने में स्वस्थ सावधान होश में ज्ञान स्वभाव में रहो तो यह सब कर्मोदय क्षय होता जाता है। प्रश्न- यह मन वचन तो शांत होते ही नहीं हैं, इन्हें क्या करें ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं १७. मन, १८. वचन मन सुभाव संजुत्तं, मन सहकार परिनाम गलियं च । आवरनं नहु पिच्छड, न्यान सहावेन कम्म गलियं च ॥ ४१६ ।। 务器部
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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