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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
गाथा-४१३-४१५*** * पर्याय की पामरता को दूर करता हुआ परिपूर्ण शुद्ध मुक्त हो जाता है।
मैं कर्म मल से रचे हुए इस बाहरी शरीर से भिन्न हूं तथा मन के विकल्पों प्रश्न - क्या ज्ञानी के स्वभाव और पर्याय में इतना विरोधाभास के
से भी भिन्न है. शब्दादि से भी भिन्न हूं, मैं एक चैतन्य मूर्ति हूं, ममल हूं, शांत में होता है?
हूं, सदा सहज सुख का धारी हूं, जिसके चित्त में ऐसी श्रद्धा हो व जो शांत हो, समाधान - हां, ज्ञानी के स्वभाव और पर्याय में ही इतना विरोधाभास आरंभ रहित हो, उसको कर्मोदय का क्या भय है ? क्योंकि फिर वर्तमान में होता है, अज्ञानी को तो इसका पता ही नहीं है। अभी क्या है, स्वभाव और भी कर्मोदय उसका कुछ नहीं करते, सब अपने आप क्षय होते जाते हैं तथा पर्याय में तो अनादि से विषम विरोधाभास रहा है। निगोद तिर्यंच नरक आदि भविष्य में कोई कर्म बंध होता ही नहीं है, इस प्रकार कर्मों से पूर्ण मुक्ति हो में क्या स्थिति रही है, वर्तमान में मनुष्य भव, सब शुभयोग, पुण्य का उदय, जाती है । मैं नित्य सहजानंद मय हूं, शुद्ध हूं, चैतन्य स्वरूप हूं, सनातन हूं, धर्म का शरण है, सो सामान्य पाप विषय कषाय के ही परिणाम हैं । अब परम ज्योति स्वरूप हूं, अनुपम हूं, अविनाशी हूं, इस प्रकार ज्ञानी अपने स्वभाव साधना का जितना पुरुषार्थ करोगे, उतनी ही पर्याय की शुद्धि होती
भीतर अपने को देखता है। इन कर्मोदय आवरण को नहीं देखता, इससे यह हुई पात्रता बढ़ेगी। अब पर्याय का लक्ष्य तो रखो ही मत। पर्याय की पामरता कर्मोदय विला जाते हैं। अपने आत्म स्वरूप को भूलकर जीव ने देह दृष्टि से को भी मत देखो। अपने स्वभाव की श्रेष्ठता, उत्कृष्टता और महिमा को
अनंत संसार भव भ्रमण किया। कर्मोदय जन्य कृत्य भाव, क्रिया, पर्याय में देखो, उसी का बहुमान, उत्साह करो तभी यह पर्याय की पामरता, निकृष्टता जुड़कर कर्मबंध किया। अब आत्म दृष्टि से अपने ज्ञान स्वभाव की साधना मिटेगी। पर्याय की शुद्धि से ही परमात्म दशा प्रगट होगी।
करो, जिससे सारे कर्म बंधनों से छूटकर मुक्ति की प्राप्ति हो। प्रश्न- यह कर्मोदय जन्य परिणमन कब तक कैसा चलेगा?
प्रश्न - यह कर्मोदय से पुनः कर्मबंध कैसे होता है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं
समाधान - द्रव्यकर्म के उदय से भावकर्म होते हैं तथा भावकर्म से १४. कर्मोदय जन्य क्रिया भाव
द्रव्यकर्म का बंध होता है। जीव को अपने स्वरूप का बोध न होने से वह इन कम्मस्स कम्म जुत्तं, कम्म सहकार कृत्य नहु पिच्छं।
कर्मोदय परिणमन में मोह, राग-द्वेष करता है इससे पुन: कर्मबंध होता है,
जिसे अपने आत्म स्वरूप का बोध सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान होता है, वह आवरन भाव तिक्त,न्यान सहावेन कम्म विलयंति ॥ ४१३ ॥
इन कर्मोदय से न जुड़ता है न मोह, राग-द्वेष करता, इससे यह कर्मोदय गल अन्वयार्थ - (कम्मस्स कम्म जुत्तं) जब तक कर्मों के उदय से कर्मों
जाता है, विला जाता है, क्षय हो जाता है, पुन: कर्मबंध नहीं होता। कर्मोदय में युक्त रहोगे अर्थात् कर्मोदय में एकमेक रहोगे तब तक कर्मोदय चलेगा परिणमन में राग-द्वेष होना ही पुन: कर्मबंध का कारण है। (कम्म सहकार कृत्य नहु पिच्छं) कर्मों के द्वारा होने वाले कृत्य, क्रिया कार्य
प्रश्न- यह राग-देवादि भावों से कैसे छूटा जाये,कैसे बचा जाये? को मत देखो (आवरन भाव तिक्तं) आवरण भाव छूट जाने वाले हैं (न्यान
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंसहावेन कम्म विलयंति) ज्ञान स्वभाव से सब कर्म विला जाते हैं।
१५. राग भाव, १६. द्वेष भावविशेषार्थ-१४.कर्मोदय जन्य क्रिया भाव-जीव का और कर्मों
रागं च राग जुत्तं, राग परिनाम सयल गलियं च । का अनादि से एक क्षेत्रावगाह निमित्त-नैमित्तिक संबंध है, कर्मों के उदय में लिप्त होने से पुन: कर्मों का बंध होता है और यह श्रृंखला चलती रहती है, इन
आवरन भाव नहु दिडं, दसन दिडी च राग गलियं च ॥ ४१४॥ कर्मोदय से अपने स्वरूप को भिन्न जानकर कर्मोदय द्वारा होने वाले भाव, दोषं च भाव जुत्तं, दोषं सहकार नन्त गलियं च । * क्रिया, पर्याय से निर्विकारी न्यारे ज्ञायक रहो, यह आवरण को मत देखो, आवरनं न उपत्ति, न्यान बलेन दोस विलयंति ॥ ४१५॥ अपने ज्ञान स्वभाव की साधना से यह सब कर्म विला जाते हैं।
अन्वयार्थ - (रागं च राग जुत्तं) राग के उदय में रागपूर्वक जुड़ जाना २३६
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