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गाथा-४२३.४२४H-28
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* ****** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
यह आत्मा और यह गुण इस प्रकार अभेद वस्तु में भेद करना, वह पर द्र * है। शरीर, मन, वाणी आदि परद्रव्यों की तो बात ही क्या, यहां तो ज्ञानादि * अनंत गुण वह आधेय और आत्मा उनका आधार, ऐसे आधेय-आधार के भेद
करना भी परद्रव्य है इसलिये वह हेय है, परद्रव्य के लक्ष्य से तो राग होता है परंतु अभेद वस्तु में भेद करके देखने से भी राग होता है अत: जितने भी औदयिक आदि भाव हैं यह सब पर हैं। अपने स्व स्वरूप का लक्ष्य होने से सब कर्मादि विला जाते हैं।
२४.असत् भावपरिनाम असत्य सहियं, असत्य भावभाव गलियंच। आवरनं नहु सहियं, न्यान सहावेन परिनाम गलियं च ॥ ४२३ ।।
अन्वयार्थ - (परिनाम असत्य सहियं) असत् भाव सहित हो रहे हो (असत्य भाव भाव गलियं च) असत् भाव के भाव सब गल जाने वाले हैं (आवरनं नहु सहियं) यह आवरण सहित मत होओ (न्यान सहावेन परिनाम गलियं च) ज्ञान स्वभाव से वह सब असत् भाव गल जाते हैं।
विशेषार्थ-२४. असत्भाव-भाव पांच प्रकार के होते हैं-औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक और पारिणामिक भाव । इनमें चार भाव असत्भाव, क्षणभंगुर नाशवान हैं, एक पारिणामिक भाव ही सत् स्वभाव है जो अनादि निधन शाश्वत है।
१. औदयिक भाव-कर्मों के उदय के निमित्त से होने वाले जीव के भावों को औदयिक भाव कहते हैं। इसके २१ भेद होते हैं-चार गति, चार कषाय, तीन वेद, मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व और छह लेश्या।
(विस्तृत विवेचन तत्वार्थ सूत्र से देखें)
२. औपशमिक भाव-कर्मों के उपशम होने पर जो भाव होते हैं वह औपशमिक भाव हैं। इसके २ भेद हैं- औपशमिक सम्यक्त्व, औपशमिक चारित्र।
३.क्षायोपशमिक भाव-कर्मों के क्षयोपशम के निमित्त से जीव के जो भाव होते हैं वह क्षायोपशमिक भाव कहलाते हैं। इसके १८ भेद होते हैं- चार ज्ञान, तीन अज्ञान, तीन दर्शन, दानादि पांच लब्धि, क्षायोपशमिक
सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक चारित्र और संयमासंयम।
४. क्षायिक भाव-कर्मों के क्षय के निमित्त से होने वाले जीव के भाव को क्षायिक भाव कहते हैं । इसके नौ भेद हैं- केवल ज्ञान, केवल दर्शन, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिक वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र।
५. पारिणामिक भाव-चार भावों से रहित जो भाव है वह पारिणामिक भाव है। पारिणामिक का अर्थ है- सहज स्वभाव । उत्पाद व्यय रहित, ध्रुव एक रूप स्थिर रहने वाला भाव पारिणामिक भाव है। पारिणामिक भाव सभी जीवों को सामान्य होता है। मतिज्ञान केवलज्ञान आदि पारिणामिक भाव नहीं हैं, जीव में एक अनादि अनंत शुद्ध चैतन्य स्वभाव है, इस परम पारिणामिक भाव से जीव सिद्ध पद प्राप्त करता है।
असत् भाव के भाव सब विला जाने वाले हैं, इन कर्मोदायिक भावों सहित मत होओ, अपने त्रैकालिक ध्रुव स्वभाव, परम पारिणामिक भाव का आश्रय रखो, ज्ञान स्वभाव में रहो, यह सब असत् भाव छूट जाने वाले हैं।
ज्ञानी को एक अखंड परम पारिणामिक भाव का आलंबन रहता है। वह औदयिक भाव, औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक भावों का आश्रय नहीं करता क्योंकि वह तो पर्याय है, विशेष भाव है, सामान्य के आश्रय से ही शुद्ध विशेष प्रगट होता है।
२५. माया भावमाया सहाव संजुत्तं, माया सहकार सयल गलियं च। आवरन भाव तिक्तं , न्यान सहावेन मिच्छ गलियं च ॥ ४२४ ॥
अन्वयार्थ - (माया सहाव संजुत्तं) माया के स्वभाव से जुड़ रहे हो (माया सहकार सयल गलियं च) माया के द्वारा होने वाले सारे भाव गल जाने वाले हैं (आवरन भाव तिक्तं) यह आवरण भाव छोड़ो (न्यान सहावेन मिच्छ गलियं च) ज्ञान स्वभाव में रहने से यह सब मिथ्या माया के भाव विला जाते हैं।
विशेषार्थ-२५. मायाभाव - माया संसारी प्रपंच को कहते हैं। यह तीन रूप होती है- कंचन, कामिनी, कीर्ति । इनसे संबंधित सब माया भाव
हैं। यह माया भाव शल्य रूप होते हैं जो निरंतर छिदते रहते हैं। यह सब २४१ भाव गल जाने, विला जाने वाले हैं। इन आवरण भाव को छोड़ो, अपने ज्ञान *