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गाथा-४०२-४०४ *-----
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**** ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
तत्त्वनिर्णय-जिस समय जिस जीव का जिस द्रव्य का जैसा जो कुछ * होना है वह अपनी तत्समय की योग्यतानुसार हो रहा है और होगा उसे कोई भी टाल फेर बदल सकता नहीं।
वस्तु स्वरूप- मैं धुवतत्व शुद्धात्मा हूँ, यह एक-एक समय की चलने वाली पर्याय और जगत का त्रिकालवी परिणमन क्रमबद्ध निश्चित अटल है, इससे मेरा कोई सम्बंध नहीं है। जैसा केवलज्ञानी के ज्ञान में आया है वैसा ही सब हुआ, हो रहा है और होगा उसके विपरीत कुछ नहीं हो सकता, ऐसा स्वीकार करना ही सर्वज्ञ की सच्ची श्रद्धा है।
३. परभावपर भावं पर सहियं, पर सहकार नंत विरयंमि । आवरनं नहु पिच्छदि, न्यान सहावेन पर भाव विपनं च ॥ ४०२॥
अन्वयार्थ - (पर भावं पर सहियं) परभाव पर सहित हो रहे हो (पर सहकार नंत विरयंमि) पर के सहकार रूप अनंत प्रकार के परभाव सब विला जाने वाले हैं (आवरनं नहु पिच्छदि) यह आवरण को मत देखो (न्यान सहावेन पर भाव षिपनं च) ज्ञान स्वभाव से यह सब परभाव क्षय हो जाते हैं।
विशेषार्थ-३. परभाव- अरे ! यह परभावों में बह रहे हो, पर सहित हो रहे हो यह कैसा है, वह कैसा है, उसने क्या किया, उसका क्या होगा? उसने ऐसा किया, वह ऐसा है । यह सब परभावों से अपना क्या सम्बंध है? जो जैसा है उसका फल वही भोगेगा, जब एक जीव का दूसरे जीव से कोई सम्बंध नहीं है, सबका अपना-अपना परिणमन स्वतंत्र है। धर्म-कर्म में कोई किसी का साथी नहीं है । जो जैसा करेगा, उसका फल वही भोगेगा, फिर इन भावों में क्यों बहते हो? यह सब परभाव और पर संयोग विला जाने वाले हैं, क्षणिक संयोग हैं। अपने ज्ञान स्वभाव का चिंतन-मनन करो, अपने ममल स्वभाव शुद्धात्मा को देखो, यह सब परभाव क्षय हो जाते हैं। कर्मोदय जन्य, पर्यायावरण को मत देखो, अपने आत्म स्वभाव को देखो।
यह आत्मा कभी पैदा हुआ नहीं अत: अजन्मा है । कभी नाश नहीं होगा इसलिये अविनाशी है, अमूर्तिक है। अपने स्वभाव का कर्ता अपने सहज
सुख का भोक्ता है। परम सुखी है, ज्ञानी है, शरीर मात्र आकारधारी है। कर्म * मलों से रहित लोकाग्र जाकर ठहरता है, निश्चल है तथा यही प्रभु है,
परमात्मा है।
४. पर्याय भावपज्जावं नन्त विषेसं, अनन्त परिनाम पज्जाव विरयंति। आवरन नहु दिडं, दंसन दिट्ठी च कम्म विपिऊनं ॥४०३॥
अन्वयार्थ - (पज्जावं नन्त विषेसं) पर्यायों की अनंत विशेषता है, अनंत प्रकार की होती हैं (अनन्त परिनाम पज्जाव विरयं ति) अनंत परिणामरूपी पर्याय सब छूट जाने वाली, विला जाने वाली हैं (आवरनं नह
दिट्ठ) आवरण को मत देखो (दंसन दिट्ठी च कम्म षिपिऊनं) अपने ममल K स्वभाव को देखने की दृष्टि से यह सब पर्याय और कर्म क्षय हो जाते हैं।
विशेषार्थ-४. पर्याय भाव-पर्यायों की अनंत विशेषता है, यह पर्यायें अनंत प्रकार की होती हैं। देखो, अभी ऐसी पर्याय चल रही थी, अब ऐसी चलने लगी, अभी ऐसे भाव हो रहे थे, अब ऐसे होने लगे। यह पर्यायावरण को मत देखो, यह सब परिणाम और पर्याय सब विला जाने वाली हैं। जैसे आकाश में बादल दिखते हैं परंतु कुछ समय में ही सब छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, विला जाते हैं, इसी प्रकार यह सब पर्यायी परिणमन विला जाने वाला है क्योंकि पर्याय मात्र एक समय की होती है, इधर आई उधर गई। जैसे हवा बहती है, नदी का पानी बहता है, वैसे ही यह पर्यायी परिणमन बहता चला जा रहा है, न रुकता है, न लौटकर आता है। अपने ममल स्वभाव धुवतत्व को देखो, उसकी दृष्टि करो तो यह सब पर्याय और कर्म भी क्षय हो जायेंगे।
ज्ञायक स्वभाव का जहाँ अंतर में भान हुआ, जानने वाला जाग उठा कि मैं तो एक ज्ञायक स्वरूप हूँ, ऐसा जब अनुभव में आया फिर वह पर्यायावरण में नहीं उलझता,पर्यायें स्वयं क्षय होती जाती हैं।
५. नोकर्म भाव__ नो कम्मं उववन्नं, नो कम्म भाव सयल विरयंति।
आवरनं नहु दिड, न्यानं दिहीच कम्म विलयति ॥४०४॥
अन्वयार्थ - (नो कम्म उववन्न) नोकर्म शरीरादि सम्बंधी भाव पैदा 6 होने लगे (नो कम्म भाव सयल विरयंति) नो कर्म के भाव सब विला जाने वाले
हैं (आवरनं नहु दि8) आवरण को मत देखो (न्यानं दिट्ठी च कम्म विलयंति)
ज्ञान दृष्टि रखो, यह नो कर्म और कर्मोदय सब विला जायेंगे। २३०
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