________________
गाथा -४०१
-------
-
--
-
----
----
********* श्री उपदेश शुद्ध सार जी * जीव अज्ञान दशा में रहता है, इन्हीं के चक्कर में घूमता रहता है। जब
जीव को भेदज्ञान पूर्वक अपने आत्म स्वरूप का सम्यक्दर्शन ज्ञान होता है, तब वह इन कर्म बंधनों से छूटकर मुक्त होता है।
इसमें सम्यकदर्शन की साधना से मलदोष दूर होता है, सम्यकज्ञान की साधना से विक्षेप दोष दूर होता है और सम्यक्चारित्र की साधना से आवरण दोष दूर होता है। साधक दशा में यह नाना प्रकार के परिणाम और कर्मोदय चलते हैं, इन्हें ज्ञेयभाव और भावक भाव भी कहते हैं अर्थात् जो विश्वरूप छह द्रव्य जानने में आते हैं, वह ज्ञेय भाव हैं और जो नाना प्रकार के भाव भाये जाते हैं, वह भावक भाव कहलाते हैं।
पूर्व अज्ञान दशा में जो नाना प्रकार के भाव भाये हैं वह भाव कर्म रूप बंधन, भावक भाव सत्ता रूप उदय में चलते हैं। इन आवरण रूप कर्मोदय में न उलझकर अपने ममल स्वभाव की दृष्टि रखी जाये, उसकी साधना की जाये तो यह सब कर्म क्षय हो जाते हैं।
आत्मा ममल स्वभावी, ज्ञान स्वभावी प्रभु है, ऐसा जिसके ज्ञान में आया, वह ज्ञानी जीव जीवन में स्थिर हो जाता है यह प्रत्याख्यान है। जहाँ ज्ञान, ज्ञान में स्थिर हुआ वहाँ विशेष आनंद की धारा बहती है यही प्रत्याख्यान है। इसी से सब कर्मोदय निर्जरित क्षय होते हैं। देह की स्थिति तो मर्यादित है ही, कर्म की स्थिति भी मर्यादित है और विकार की स्थिति भी मर्यादित है। स्वयं की पर्याय में जो कार्य होता है वह भी मर्यादित है। आत्मा ध्रुव स्वभाव अमर्यादित है, त्रिकाली स्वभाव की मर्यादा नहीं होती, धर्मी की दृष्टि उस अमर्यादित स्वभाव पर होती है जिससे यह सब कर्मावरण क्षय होते हैं।
प्रश्न - यह भावक भाव कितने प्रकार के कैसे होते हैं?
समाधान - यह भावक भाव प्रत्येक जीव की अपेक्षा अनंत प्रकार के होते हैं, सबके अपने-अपने संस्कार स्वभाव के अनुसार अलग-अलग होते
हैं। सामान्यत: समयसार में सत्रह प्रकार के और यहाँ उपदेश शुद्ध सार में * सत्तावन प्रकार के बताये हैं। इन्हें अपने में ही देखना पड़ते हैं और ज्ञानपूर्वक
अंतर शोधन करना होता है। ____ साधक किस भूमिका में किस स्थिति में है तथा पूर्व कर्म बंधोदय कैसे हैं? यह स्वयं को स्वयं में ही देखना जानना पड़ता है और स्वयं की शक्ति
आत्मबल, ज्ञानबल से ही इनका परिमार्जन होता है। यदि स्वयं में उस ओर ***** * * ***
का राग, रुचि है या रस आता है, तो इनसे छूटने में बहुत समय लगता है। जब तक स्वयं का राग, रुचि समाप्त न हो, तब तक यह भ्रमाते हैं।
प्रश्न - इन भावों के नाम, उनका स्वरूप और उनसे छूटने का उपाय क्या है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - भावक भाव के नाम, स्वरूप और छूटने का उपाय
१. संसार सरनि भाव, २. न्यानावरणसंसार सरनि सहियं, संसारे सरंति परिनाम विरयंति। न्यानावरन न दिडं, न्यान सहकार सरनि मुक्कं च ।। ४०१॥
अन्वयार्थ - (संसार सरनि सहियं) संसार परिभ्रमण सहित हो रहे हो (संसारे सरंति परिनाम विरयंति) संसार में घुमाने वाले सब परिणाम छूट जाने वाले हैं (न्यानावरन न दिट्ठ) ज्ञानावरण को मत देखो (न्यान सहकार सरनि मुक्कं च) ज्ञान के सहकार से यह सब चक्कर छूट जाता है।
विशेषार्थ- यहाँ सावधान होकर अपने भीतर देखना पड़ेगा और इन भावों का ज्ञान पूर्वक परिमार्जन, शमन करना होगा तभी अंतर शोधन होने पर आगे बढ़ सकते हैं।
यहाँ अपने अंतरंग परिणामों को बताकर उनकी सफाई कराई जा रही 8 है, जब तक यह भाव साफ न हो जायें तब तक आगे नहीं बढ़ना, तभी साधक की सही साधना है। मात्र जानकारी कर लेने से भला नहीं होगा।
१. संसार सरनि भाव - अरे ! देखो, यह संसार के चक्कर में घूम रहे हो, अब किससे क्या लेना-देना? यह संसार में घुमाने वाले सब परिणाम विला जाने वाले हैं, तुम इनमें मत उलझो।
२. न्यानावरन - यह ज्ञानावरण को मत देखो, मुझे याद नहीं रहता, ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं हूँ, बोलना नहीं आता, इससे क्या प्रयोजन है ? ज्ञान का सहकार करो, यह सब चक्कर छूट जायेगा । ज्ञान के सहकार के लिये तीन सूत्र हैं - १. भेदज्ञान, २. तत्त्वनिर्णय, ३. वस्तु स्वरूप, इनका निरंतर स्मरण रहना चाहिये, हर समय इनका चिंतन करोगे तभी इन भावों से छूटोगे।
भेवज्ञान - इस शरीरादि से भिन्न मैं एक अखंड अविनाशी चैतन्य तत्त्व भगवान आत्मा हूँ, यह शरीरादि मैं नहीं और यह मेरे नहीं। २२९
地市市章年年地點
-55-5-15-------