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________________ - ---- --- HHHH श्री उपदेश शुद्ध सार जी गाथा-३९८-४०० -- --- - -- ममल सहावं दिह, ममल परिनाम नंतनंताई। में अनेक वृक्षों के विविध प्रकार के पत्र, पुष्प, फलादि खिल उठते हैं, उसी ममल सहाव सुसमयं, ममलं उत्पन्न मुक्ति गमनं च ॥ ३९८ ॥ प्रकार साधक आत्मा को चैतन्यरूपी बसंत बहार में अनेक गुणों की विविध प्रकार की पर्याय खिल उठती हैं, ममल हो जाती हैं। द्रव्यदृष्टि ही साधक अन्मोयं न्यान सहावं, न्यानं अन्मोय ममल न्यानं च। आत्मा की बसंत बहार है, वह चैतन्य की मस्ती में मस्त रहता है। ममलं च दंसनत्वं, नन्त चतुस्टय मुक्ति गमनं च ।। ३९९ ॥ प्रश्न-अभी यह नाना प्रकार के परिणाम कर्मोदय चलते हैं इनके अन्वयार्थ - (ममल सहावं दि8) ममल स्वभाव की दृष्टि से (ममल लिये क्या करें? परिनाम नंतनंताई) निरंतर अनंतानंत परिणाम, निर्मल, ममल होते जाते हैं इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - (ममल सहाव सुसमयं) अपने ममल स्वभाव शुद्धात्मा में लीन होने पर (ममलं विपिओ कम्मसुभावं, ममल सुभावसयल पिपिऊन। उत्पन्न मुक्ति गमनं च) पूर्ण ममलता पैदा होने पर अर्थात् पर्याय भी परिपूर्ण शुद्ध होने पर मुक्ति होती है। आवरनं नहु पिच्छइ, ममल सहावेन कम्म संषिपनं ॥४००॥ (अन्मोयं न्यान सहाव) ज्ञान स्वभाव के आलंबन से (न्यानं अन्मोय अन्वयार्थ - (पिपिओ कम्म सुभावं) कर्मोदय, कर्म का स्वभाव सब ममल न्यानं च) ज्ञान स्वभाव की लीनता और ममल ज्ञान होता है (ममलं च क्षय होने वाला है (ममल सुभाव सयल षिपिऊनं) ममल स्वभाव से तो सबका दंसनत्वं) और दर्शनोपयोग के ममल होते ही (नन्त चतुस्टय मुक्ति गमनं च) सब क्षय हो जाता है (आवरनं नहु पिच्छइ) यह आवरण को मत देखो, इसमें अनंत चतुष्टय रूप केवलज्ञान की प्रगटता तथा मुक्ति की प्राप्ति होती है। मत उलझो (ममल सहावेन कम्म संषिपनं) ममल स्वभाव से सारे कर्म क्षय हो विशेषार्थ- ममल स्वभाव की दृष्टि की यही विशेषता है कि निरंतर जाते हैं। अनंतानंत परिणाम निर्मल ममल होते जाते हैं अर्थात् अनंत गुणों की अनंतानंती विशेषार्थ- कर्मों का स्वभाव निर्जरित क्षय होने का है, ममल स्वभाव पर्यायें निर्मल ममल खिलने लगती हैं। ममल स्वभाव शुद्धात्मा में लीन होने से सारे के सारे कर्म क्षय हो जाते हैं। शुद्धोपयोगी जीव प्रतिक्षण अत्यंत शुद्धि पर पर्याय की शुद्धि पूर्वक मुक्ति की प्राप्ति होती है। को प्राप्त करता रहता है और इस प्रकार मोह का क्षय करके निर्विकार अब ज्ञानोपयोग की विशेषता ज्ञान स्वभाव का आलंबन, विशेष चेतनावान होकर बारहवें गुणस्थान के अंतिम समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण ज्ञानोपयोग होने पर.ज्ञानोपयोग ममल होता है और दर्शनोपयोग की विशेषता. और अंतराय कर्म का युगपत् क्षय करके समस्त ज्ञेयों को जानने वाले दर्शनोपयोग के ममल होने पर अनंत चतुष्टय स्वरूप अरिहंत पद प्रगट हो केवलज्ञान को प्राप्त करता है। यह आवरण को मत देखो, इसमें मत उलझो, जाता है तथा मुक्ति की प्राप्ति होती है। ममल स्वभाव से सब कर्म क्षय हो जाते हैं। ममल स्वभाव की दृष्टि, द्रव्यदृष्टि, चैतन्य के तल पर ही लगी रहती है। __ वर्तमान साधक दशा में पर्यायावरण अशुद्ध है इसलिये यह नाना प्रकार साधक दशा में शभ भाव बीच में आते हैं परंतु साधक उन्हें छोडता जाता है. के परिणाम कमोदय चलते हैं; परंतु यह पर्यायावरण अपने ममल स्वभाव की साध्य का लक्ष्य नहीं चूकता, ज्ञानी को पूर्णता का लक्ष्य होने से यह अंश में साधना से ही शुद्ध होगा, ममल स्वभाव की दृष्टि से ही कर्म क्षय होंगे और नहीं अटकता अर्थात् निर्मल पर्याय में भी रुकता नहीं है, ज्यों-ज्यों आगे 5 कोई दूसरा उपाय ही नहीं है। अज्ञान जनित मिथ्यादृष्टिपने से कर्मों का , बढ़ता है, त्यों-त्यों समरस भाव प्रगट होता जाता है। आश्रव बंध होता है। सम्यक्दृष्टि ज्ञानी होने पर शुद्ध दृष्टि की साधना से कर्मों साधक अंदर जाये तो अनुभूति और बाहर आये तो तत्त्वचिंतन। साधक का संवर और निर्जरा पूर्वक मोक्ष होता है। जीव के अपने अनेक गुणों की पर्याय निर्मल होती जाती हैं.जैसे-बसंत ऋत जीव के साथ अनादि के कर्मों का मल विक्षेप आवरण रूप बंधन है और यही जीव को चारगति चौरासी लाख योनियों में भ्रमाता है। जब तक २२८ 祭茶茶茶茶 15-16----
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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