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*********** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
गाथा-३९५-३९७*-*-* -*-*-* लोक मूढता अथवा कर्तापने के तीनों मूढ भाव - मैं करता हूँ, मैं भोगता रहने में क्या अंतर है? * हूँ, मैं बंधता हूँ यह सब भी क्षय हो जाते हैं (पिपिओ परिनाम अजीव पज्जावं)
समाधान - जब निज शुद्धात्मानुभूति पूर्वक सम्यक्दर्शन हुआ तब * अजीव पुदगल शरीरादि पर्याय संबंधी परिणाम भी क्षय हो जाते हैं (पिपिओ भेदज्ञान, तत्त्वनिर्णय, वस्तुस्वरूप जानने पर सम्यक् ज्ञान पूर्वक ज्ञायक * कम्मनिबन्धं) पूर्व में बंधे हुए सब कर्म और कर्म सम्बंध भी क्षय हो जाता है कमलभाव प्रगट हुआ, इसके बाद द्रव्य स्वभाव को जानने से द्रव्यदृष्टि होती • (पिपिओ संसार सरनि संबंध) अपने ममल स्वभाव की दृष्टि और उसमें लीन है जिसमें सब जीव, द्रव्य स्वभाव से सिद्ध के समान शुद्ध अपने में परिपूर्ण रहने से यह संसार परिभ्रमण का सारा सम्बंध छूट जाता है।
परमात्म स्वरूप हैं। मैं सिद्ध स्वरूपीशुद्धात्मा टंकोत्कीर्ण अप्पा ममल स्वभावी विशेषार्थ- आत्मा अनादिकाल से मोह के उदय से अज्ञानी था। वह
धुवतत्त्व हूँ, पुद्गल द्रव्य स्वभाव से शुद्ध परमाणु रूप है । जो यह जगत श्री गुरु के उपदेश से और स्व काललब्धि से ज्ञानी हुआ तथा अपने स्वरूप
दिखाई दे रहा है, यह सब पुद्गल परमाणुओं का स्कंध है। यह शरीर धन को परमार्थ से जाना कि मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, अरूपी हूँ, ममल स्वभावी दर्शन
आदि सब पुद्गल परमाणुओं का स्कंधरूप परिणमन है, जो सब क्षणभंगुर ज्ञानमय हूँ। ऐसा जानने से मोह मिथ्यात्व का समूल नाश हो गया। भावक
नाशवान असत् है, सब भ्रांति है। मन आदि द्वारा चलने वाले सब भाव सूक्ष्म भाव और ज्ञेय भाव से भेदज्ञान हुआ, अपनी स्वरूप सम्पदा अनुभव में आई,
भावकर्म रूप लहरें हैं, जो सब भ्रम है। पर्यायी परिणमन एक समय का तब फिर पुन: मोह मिथ्यात्व कैसे उत्पन्न होगा? नहीं हो सकता ; तो फिर
नाशवान है। ऐसा द्रव्यदृष्टि का निर्णय अर्थात दर्शन उपयोग, ज्ञानोपयोग यह जितने भी कर्मोदय जन्य मन, शरीर, पर्याय, पाप-पुण्य आदि अनंत
दोनों में ऐसा स्पष्ट देखने जानने में आवे । यह जो बाह्य में देखने जानने आदि भाव हैं यह अपने आप क्षय हो जाते हैं।
क्रिया रूप परिणमन चल रहा है यह सब इन्द्रिय ज्ञान है, इससे आत्मा का सर्व परद्रव्यों से तथा उनसे उत्पन्न हुए भावों से जब भेद जाना, तब
कोई संबंध नहीं है, आत्मा ममल स्वभाव अपने को अपने में ही जानता देखता उपयोग के रमण के लिये अपना ममल स्वभाव ही रहा, अन्य कुछ नहीं रहा।
है, जब ऐसी स्थिति बने वह ममल स्वभाव की दृष्टि है। यह मोह कर्म मन आदि जड़ पुद्गल द्रव्य हैं, उसका उदय मलिन भाव रूप है, वह भाव भी, मोह कर्म का भाव होने से पुद्गल का विकार ही है। यह भाव
जो वर्तमान संयोगी पर्याय में रहते हुए दृष्टि अपेक्षा द्रव्य स्वभाव को ही का भाव, जो अभाव रूप है, जब इन सबका भेदज्ञान हो गया कि यह कुछ मैं
देखता जानता है। शेष सारा परिणमन कर्मोदय जन्य इन्द्रियज्ञान से हो रहा नहीं हूँ, यह कुछ भी मेरे नहीं हैं, इस ज्ञानभाव से ही यह सब कर्म, विषय,
है, इससे मेरा कोई सम्बंध नहीं है। सब होते हुए अपना ममल स्वभाव दिखे कषाय, पाप, पुण्य आदि अपने आप विला जाते हैं, क्षय हो जाते हैं।
और सामने पुद्गल शुद्ध परमाणु रूप जानने में आवे, सब भ्रम भ्रांति मिट यदि यह आत्मा दो घड़ी पुद्गल द्रव्य से भिन्न अपने शुद्ध स्वरूप का जाये वह शुद्ध दृष्टि या ममल स्वभाव की दृष्टि है, इससे सारे कर्मोदय क्षय हो अनुभव करे, ममल स्वभाव में लीन रहे, परीषह के आने पर भी डिगे नहीं तो
जाते हैं। इसके बाद पर्याय की शुद्धि पूर्वक जो ममल स्वभाव में लीनता होती घातिया कर्म का नाश होकर केवलज्ञान प्रगट हो जाता है, आत्मानुभव की है, वह शुद्धोपयोग की स्थिति है जिससे शुक्लध्यान प्रगट होता है, इससे ऐसी महिमा है। इस प्रकार अपने ममल स्वभाव की दृष्टि होने, उसमें लीन उदय में चलने वाले कर्म तथा सत्ता में पड़े कर्म भी भस्म होते हैं। दो घड़ी * होने से यह मन का चंचलपना, संकल्प-विकल्प होना, पुण्य-पाप के भाव, (अड़तालीस मिनिट) में घातिया कर्म क्षय होकर केवलज्ञान प्रगट हो जाता
विषय-कषाय का सम्बंध तथा शरीरादि संयोगी पर्याय सब छूट जाते हैं, सब है। ममल स्वभाव की दृष्टि मात्र उपयोग की शुद्धता है । ममल स्वभाव में * कर्म क्षय हो जाते हैं, संसार परिभ्रमण का सम्बंध भी छूट जाता है, क्षय होस लीनता पर्याय की शुद्धि पूर्वक होती है। जाता है।
प्रश्न - ममल स्वभाव की दृष्टि की और क्या विशेषता है? प्रश्न - यह ममल स्वभाव की दृष्टि और ममल स्वभाव में लीन
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं
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