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________________ गाथा-३९५-३९७*----- ------ REMESHRERS * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी विषयं च राग संषिपन) मिथ्या विषय और राग क्षय हो जाते हैं (पिपियं * नन्त अभावं) अनंत प्रकार के अभाव क्षय हो जाते हैं (न्यानं अन्मोय कम्म विपनं च) ज्ञान का आलंबन रखने से सारे कर्म भी क्षय हो जाते हैं। (परिनामं अन्यानं) अज्ञान जनित परिणाम (जनरंजन राग सहाव षिपनं च) और जनरंजन राग का स्वभाव भी क्षय हो जाता है (कल रंजन दोष विलयं) कलरंजन दोष भी विला जाते हैं (मनरंजन गारवं च विलयंति) और मनरंजन गारव भी विला जाता है। (एयं अनेय रूवं) एवं इसी प्रकार के अनेक भाव (रूवातीतं च कम्म मोहंधं) रूपातीत कर्म और दर्शन मोहांधपना (उत्पन्नं षिपिऊन) पैदा होना ही मिट जाता है (पिपिओ कम्मानि नंतनंताइ) अनंतानंत कर्म भी क्षय हो जाते हैं। विशेषार्थ- ममल स्वभाव की दृष्टि होने से अज्ञान भाव छूट जाता है, मिथ्या विषय और राग भाव क्षय हो जाता है, अनंत प्रकार का अभाव भाव क्षय हो जाता है, अपने ममल ज्ञान स्वभाव में रहने से कर्म भी क्षय हो जाते हैं। अज्ञान जनित परिणाम और जनरंजन राग भाव भी क्षय हो जाता है, कलरंजन दोष और मनरंजन गारव भी विला जाता है और इसी प्रकार के अनेक रूपी पदार्थ जो दृश्यमान भ्रमित करते हैं यह तथा चक्षु इन्द्रिय के अगोचर रूपातीत जो कर्म और दर्शन मोहांधपना है वह भी पैदा होना मिट जाता है । ममल स्वभाव में रहने से पूर्वबद्ध अनंतानंत कर्म भी क्षय हो जाते हैं। ममल स्वभाव की साधना, अभ्यास से ममल भाव प्रगट होता है वहाँ अज्ञान जनित जितने भी परिणाम, विभाव भाव हैं वह सब छूट जाते हैं क्योंकि आत्मा में तो यह कुछ हैं ही नहीं। अज्ञान के कारण इन्हें अपने और अपने में मान लिये थे। जब सम्यक्ज्ञान पूर्वक ममल स्वभाव की दृष्टि होती है तब यह * सब अपने आप विला जाते हैं। विचार मंथन सब विकल्प रूप ही है। अनादिकाल से एकत्व परिणमन में सब एकमेक हो रहा है उसमें से मैं मात्र ज्ञान स्वरूप हूँ, ममल स्वभावी हूँ, इस प्रकार भिन्न होना है। जहाँ ऐसी भिन्नता का बोध जागता है कि सब अज्ञान भ्रम अपने आप छूट जाता है, सब भ्रांति विला जाती है। यह आत्मा स्पर्श रस आदि गुणों से रहित और पुद्गल तथा अन्य चार अजीवों से भिन्न है, उसे भिन्न करने का साधन तथा राग और विकल्पों से भिन्न करने का साधन तो भेदविज्ञान ममलस्वभाव की दृष्टि है। परद्रव्य की ओर की वृत्ति शुभ हो चाहे अशुभ हो परंतु वह आत्मा नहीं है । स्वरूप से अनुभव में आता हुआ ज्ञान ही आत्मा है, ऐसे ज्ञान के स्वसंवेदन की कला ही मोक्ष की कला है। ममल स्वभाव की दृष्टि उसका बारम्बार अभ्यास करना योग्य है, इसी से सब दु:खों से और कर्म संयोगों से छूटा जाता है। प्रश्न- तो क्या इससे यह मन का चंचलपना, पुण्य-पाप के भाव आदि भी मिट जाते हैं? इसके समाधान में सदगुरु आगे गाथा कहते हैंविपिओ नन्त विसेसं, विपिओ सभाव पुन्न पावं च । मन सहकारं विपिनं, मन उववन्न कम्म संषिपनं ।। ३९५॥ विपिओ समल विषेसं, विपिओ कषाय विषय संबंध। विपिओ नन्त अभावं, विपिओ पज्जाव दिहि अनिस्टं॥ ३९६ ॥ पिपिओ ति मूढभावं, विपिओ परिनाम अजीव पज्जावं। पिपिओ कम्मनिबन्ध, विपिओ संसार सरनि संबंधं ॥ ३९७ ।। अन्वयार्थ - (पिपिओ नन्त विसेस) अनंत प्रकार के विशेष भी क्षय हो जाते हैं (पिपिओ सभाव पुन्न पावं च) पुण्य और पाप के भी सब भाव क्षय हो जाते हैं (मन सहकारं षिपिनं) मन का चंचलपना भी क्षय हो जाता है (मन उववन्न कम्म संषिपनं) मन पैदा होना अर्थात् संकल्प-विकल्प करना और कर्म भी क्षय हो जाते हैं। (पिपिओ समल विषेसं) रागादिमल की जितनी विशेषतायें हैं वे भी सब क्षय हो जाती हैं (पिपिओ कषाय विषय संबंधं) विषय और कषाय का भी सब सम्बंध क्षय हो जाता है (पिपिओ नन्त अभावं) अनंत प्रकार के अभाव अर्थात् जो अपने ज्ञान में नहीं आते, जिन्हें जान नहीं पाते वे भी सब क्षय हो जाते हैं (पिपिओ पज्जाव दिट्टि अनिस्ट) पर्याय की दृष्टि जो अनिष्ट करने वाली होती है वह भी क्षय हो जाती है। (पिपिओ ति मूढ भावं) तीनों मूढभाव-देव मूढता, पाखंडी मूढता, 6
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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