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श्री उपदेश शुद्ध सार जी
गाथा-४०५,४०६--HRE
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विशेषार्थ - ५. नोकर्म भाव - यह नोकर्म शरीरादि सम्बंधी भाव र पैदा होने लगे, यह इन्द्रिय विषय और पुण्य परिणामों, राग में मत उलझो, * यह सब भाव विला जाने वाले हैं, आवरण को मत देखो, ज्ञान दृष्टि रखो, भेदज्ञान तत्त्व निर्णय करो तो यह नोकर्म और कर्मोदय सब विला जायेंगे।
इन्द्रिय सुख तो विच्छिन्न है, साता का उदय पूर्ण होते ही असाता से जीव दु:खी होता है । इन्द्रिय सुख स्थायी नहीं है, जिससे सुख की कल्पना की हो वह सामग्री भी स्थायी नहीं रहती है; जबकि अतीन्द्रिय सुख के साधन रूप चैतन्य तत्त्व तो स्थायी है और चैतन्य के आश्रय से होने वाला वह अतीन्द्रिय सुख तो राग रहित होने से बंध का कारण नहीं होता वह तो मोक्ष का कारण होता है।
मैं गोरा हूँ, रूपवान हूँ, दृढ़ हूँ, बलवान हूँ, मोटा हूँ, दुबला हूँ, कठोर हूँ, देव हूँ, मनुष्य हूँ, इन सब झूठी कल्पनाओं में मत भटको । यह सब क्षणभंगुर नाशवान धूल का ढेर पुद्गल परमाणुओं का पिंड है, जो सब विनश जाने वाला है। अपने आत्म स्वरूप को देखो, जो नित्य ज्ञान स्वभाव धारी है, सर्व मल रहित है व सब शरीरादि संयोगों से परे सच्चिदानंद स्वरूप है।
६. भाव कर्मभाव कम्म उववन्न, भाव परिनाम सयल विरयंति। आवरनं नहु सहियं, न्यान सहावेन कम्म विपनं च ॥ ४०५॥
अन्वयार्थ-(भाव कम्म उववन्न) भावकर्म पैदा होते हैं (भाव परिनाम सयल विरयंति) भाव कर्म के परिणाम सब छूट जाने वाले हैं (आवरनं नहु सहियं) यह आवरण सहित मत होओ (न्यान सहावेन कम्म विपनं च) ज्ञान स्वभाव से सब कर्म क्षय हो जाते हैं।
विशेषार्थ- ६. भाव कर्म - यह भावकर्म मोह, राग-द्वेषादि भाव पैदा होने लगे । अरे ! देखो, अपना क्या है ? कौन है ? यह सब मोह, राग-द्वेषादि भाव विला जाने वाले हैं। यह आवरण को मत देखो, इस सहित
मत होओ। अपने ज्ञान स्वभाव को देखो, ममल स्वभाव में रहो, यह सब कर्म * क्षय होने वाले हैं।
सम्यक्दृष्टि पर द्रव्यों को बुरा नहीं जानता, वह तो अपने राग भाव को ही बुरा मानता है। स्वयं सराग भाव को छोड़ता है तब उसके कारणों का भी
त्याग हो जाता है।
__आत्मा ज्ञान तत्त्व है, शुभाशुभ राग वह ज्ञान तत्त्व से विपरीत है, राग शुभ हो या अशुभ हो, मिथ्यादृष्टि का हो या सम्यक्दृष्टि का हो, वह ज्ञान तत्त्व से बाहर ही है, ऐसा ज्ञान तत्त्व स्वयं ही सुख स्वरूप है। जिस प्रकार आत्मा स्वयं ज्ञान स्वरूप है, उसी प्रकार आत्मा स्वयं सुख स्वरूप है, उसका ज्ञान और सुख इन्द्रियों से पार है, राग से भी पार है, ऐसे ज्ञान स्वभाव का आलंबन लो तो सब कर्म क्षय हो जाते हैं।
७. द्रव्य कर्मकर्म स कम्म पिच्छं, कम्म सहावेन सयल विरयंति। आवरनं न उवन्नं, दंसन दिट्टी च कम्म विरयंति ।। ४०६ ॥
अन्वयार्थ - (कम्मं स कम्म पिच्छं) यह कौन से कर्म हैं, यह कौन से कर्म हैं, इनको पहिचानना, यह सब द्रव्यकर्म हैं (कम्म सहावेन सयल विरयंति) समस्त कर्मों का स्वभाव स्वयं विला जाने का है (आवरनं न उवन्न) यह आवरण ही पैदा नहीं होगा (दंसन दिट्टी च कम्म विरयंति) तुम दर्शनोपयोग की दृष्टि तो करो, अपने ममल स्वभाव को तो देखो, यह कर्म भी क्षय हो जायेंगे।
विशेषार्थ-७. द्रव्य कर्म-यह द्रव्यकर्म के भावों में क्यों उलझ रहे हो? यह कौन सा कर्म है,यह कौन सा कर्म है. इसके जानने में क्यों लगे हो? यह तो ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय रूप आठ प्रकार के अनंतभाव होते हैं परंतु सभी कर्मों का स्वभाव तो स्वयं क्षय होने का है। उदय में आये और क्षय हुए, यह कोई स्थायी रहने वाले नहीं हैं। तुम अपने दर्शनोपयोग की दृष्टि करो, ममल स्वभाव को देखो तो यह आवरण का पैदा होना ही मिट जायेगा और सब कर्म भी क्षय हो जायेंगे।
जैसे-सिद्ध भगवान में नोकर्म नहीं हैं. वैसे ही उनमें ज्ञानावरणादि कोई भी द्रव्यकर्म नहीं हैं। उनके चौदहवें गुणस्थान के अंत समय में सर्व कर्म क्षय हो गये हैं, वैसे ही अपने आत्मा का भी इन भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्मों से कोई संबंध नहीं है। पूर्व कर्म बंधोदय आवरण रूप है, सो सब स्वयं ही गलता विलाता चला जा रहा है। तुम अपने ममल स्वभाव में रहो, अपनी शुद्ध
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