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गाथा-३९०***
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
निर्णय नहीं हुआ, उन्हें तो पहले यह सब समझना बहुत आवश्यक है * इसके लिये प्राथमिक स्वाध्याय करना चाहिये, यह दृष्टि का सूक्ष्म विषय है। * इसमें जरा भी पर पर्याय की ओर लक्ष्य गया तो फिर सब रात पीसना और * पारे में उठाने जैसा होगा।
प्रश्न-यह क्रिया, भाव, पर्याय का संबंध क्या है?
समाधान - क्रिया- नो कर्म, भाव-भावकर्म, पर्याय- द्रव्य कर्म रूप परिणमन है, इसमें पहले क्रिया रूप परिणमन से छूटना, दृष्टि हटाना आवश्यक है क्योंकि जब तक यह संयोग रहेगा तब तक स्वभाव में स्थिरता तथा दृष्टि अपने में आ ही नहीं सकती। दूसरा-भावरूप परिणमन-मोह, राग-द्वेषादि भाव यह सब भाव कर्म हैं, इनके स्वरूप को जानकर इनसे हटो, छूटो, इधर से दृष्टि हटाओ, तब पर्याय पकड़ में आती है। तीसरी-पर्याय, यह द्रव्य कर्म रूप परिणमन होती है, जीव की पर्याय घातिया कर्म से आवृत है और शरीर पुद्गल की पर्याय अघातिया कर्मों से आवृत है। इस सूक्ष्म पर्याय रूपी परिणमन से भी अपनी दृष्टि हटाना और ध्रुवतत्त्व पर दृष्टि रखना यह साधना है, इसी से सब कर्मों का क्षय होकर मुक्ति की प्राप्ति होती है।
प्रश्न-यह पर्याय का स्वरूप क्या है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंपज्जावंच अनन्तं, पज्जाव सरूव न्यान अन्मोयं। जदि अन्तरं न दिडं, न्यानं ममल सहाव सिद्धि संपत्तं ॥ ३९०॥
अन्वयार्थ - (पज्जावं च अनन्तं) पर्याय तो अनंत हैं, ज्ञानावरण के मंद व अधिक क्षयोपशम की अपेक्षा निगोद से लेकर बारहवें क्षीण कषाय गुणस्थान तक अनंत पर्यायें होती हैं, अर्थ पर्याय, व्यंजन पर्याय आदि अनेक पर्यायें हैं (पज्जाव सरूव न्यान अन्मोयं) पर्याय का स्वरूप स्थायी नहीं है, पर्याय मात्र एक समय की होती है, ज्ञान स्वभाव का आलम्बन करो (जदि अन्तरं न दि8) यदि ज्ञान स्वभाव के देखने में अंतर नहीं करते तो (न्यानं ममल सहाव सिद्धि संपत्तं) इस ज्ञान दृष्टि द्वारा ममल स्वभाव में लीन होने से * सिद्धि की संपत्ति, मोक्ष की प्राप्ति होगी।
विशेषार्थ- गुणों के परिणमन (विकार) को पर्याय कहते हैं। गुण एक साथ रहने वाले होते हैं, उनका उत्पाद व्यय रूप परिणमन होना पर्याय
नाम से व्यक्त होता है। यह पर्यायें एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी इस प्रकार नियत क्रमवर्ती होती हैं। जैसे-पुद्गल द्रव्य का रूप से रूपान्तर
होना, रस से रसान्तर होना तथा जीव का ज्ञान गुण घट ज्ञान, पट ज्ञान होना एर या चारित्र गुण का क्रोध, मान रूप होना आदि। पर्याय दो प्रकार की होती। हैं-१. स्वभाव पर्याय, २. विभाव पर्याय ।
जो पर्याय पर निरपेक्ष होती है वह स्वभाव पर्याय है, यह अनंतभाग वृद्धि आदि वृद्धिरूप और अनंत भाग हानि आदि हानिरूप। इस प्रकार बारह प्रकार की होती है, यह सब पर्यायें अगुरुलघुत्व गुण के कारण होती हैं।
जो पर्याय पर सापेक्ष होती है उसे विभाव पर्याय कहते हैं, विभाव पर्यायें केवल जीव और पुद्गल द्रव्य में होती हैं क्योंकि यह दोनों द्रव्य परस्पर में निमित्त-नैमित्तिक संबंध होने पर मिलकर विभाव रूप परिणमन कर जाते हैं।
पर्याय के अन्य प्रकार से अर्थ पर्याय और व्यंजन पर्याय यह भी दो भेद हैं। अर्थ पर्याय तो छह द्रव्यों में होती है वह सूक्ष्म है, वचन अगोचर है और क्षण-क्षण उत्पन्न और नष्ट होने वाली है।
व्यंजन पर्याय स्थूल होती है, वचनों के द्वारा उसका कथन किया जा सकता है, वह नश्वर होकर भी कुछ काल तक रहने से स्थिर होती है। उसके स्वभाव विभाव तथा द्रव्य पर्याय, गुण पर्याय रूप भेद होते हैं।
संसारी जीव की नर नारकादि पर्याय, विभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय है और मतिज्ञान आदि विभाव गुण व्यंजन पर्याय है तथा पुद्गल स्कंध के स्पर्शादि गुणों का परिणमन विभाव गुण व्यंजन पर्याय है, इन सब पर्यायों से युक्त द्रव्य होता है।
द्रव्यार्थिक नय से द्रव्य का उत्पाद और ध्यय नहीं है, सद्भाव है, उसी की पर्यायें उत्पाद विनाश होती हैं, द्रव्य धौव्य रहता है। 2 पर्यायार्थिक नय से ही द्रव्य उत्पाद वाला या विनाशवाला है, इसी उत्पाद
विनाश को पर्याय कहते हैं। वस्तुरूप से द्रव्य और पर्यायों का अभेदपना है क्योंकि पर्यायों से रहित द्रव्य और द्रव्य से रहित पर्याय नहीं होती हैं इस प्रकार दोनों में अनन्यभाव है।
जल की लहरों की तरह द्रव्य में प्रति समय अपनी-अपनी अनादि अनंत पर्यायें उत्पन्न होती हैं और नष्ट होती हैं। २२३
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