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गाथा-३९०HHHHH
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* ******* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
उपरोक्त प्रकार से द्रव्य स्वयं ही अपनी अनंत शक्ति रूप सम्पदा से परिपूर्ण है इसलिये केवलज्ञान प्राप्ति के इच्छुक आत्मा को पर पर्याय की * अपेक्षा रखकर परतंत्र होना निरर्थक है, पर्याय का स्वरूप जानना छोड़कर, ॐ ज्ञान स्वभाव का आलंबन लो।
जिसका न आदि है न अंत है तथा जिसका कोई कारण नहीं और जो अन्य किसी द्रव्य में नहीं है, ऐसे ज्ञान स्वभाव को ही उपादेय करके, केवलज्ञान की उत्पत्ति के बीजभूत जब ममल स्वभाव में आत्मा परिणमित होता है तब उसके निमित्त से सर्व घातिया कर्मों का क्षय हो जाता है और सिद्धि की संपत्तिरूप परमानंद प्रगट हो जाता है; इसलिये अधिक जानने की इच्छा का लोभ छोड़कर स्वरूप में ही निश्चल रहना योग्य है।
जब आत्मा ज्ञान स्वभाव में अंतर नहीं डालता, पर्याय की तरफ नहीं देखता, अपने ममल ज्ञान स्वभाव में एकाग्र होता है, समस्त कर्तृत्व भोक्तृत्व के अधिकार को समाप्त करके सम्यक्प से प्रगट प्रभुत्व शक्तिवान होता हुआ ज्ञान का ही अनुसरण करने वाले मार्ग से विचरता है तब विशुद्ध आत्म तत्त्व ममल स्वभाव की उपलब्धि रूप सिद्धि की संपत्ति मुक्ति को प्राप्त करता है।
शुद्ध दृष्टि तो उसको कहते हैं जो स्वयं की निर्मल पर्याय को भी नहीं देखती, यदि पर्याय का लक्ष्य रहेगा तो राग होगा, विकल्प उठेंगे । भगवान आत्मा ध्रुव स्वभाव तो पर्याय को छूता ही नहीं फिर पर्याय का लक्ष्य करने से क्या प्रयोजन है?
सिद्ध भगवान में जैसी सर्वज्ञता, प्रभुता, जैसा अतीन्द्रिय आनंद और आत्मवीर्य है, वैसी ही सर्वज्ञता, प्रभुता, आनंद और वीर्यशक्ति आत्मा में भरी है। अपने ममल स्वभाव की दृष्टि से यह सिद्धि की संपत्ति प्राप्त होती है।
प्रश्न - जब दृष्टि के सामने पर्यायी परिणमन चल रहा है ऐसे में क्या करें?
समाधान - अपने धुवतत्त्व ममल स्वभाव का लक्ष्य रखो क्योंकि अभी साधक दशा में तीनों कर्मों का परिणमन चल रहा है, संयोग है । यह क्रिया, * भाव और पर्याय अब तीनों से अपनी दृष्टि हटाकर अपने ममल स्वभाव, *धुवतत्त्व पर ही दृष्टि रखो, इसी से घातिया कर्म और तीनों प्रकार के कर्म क्षय
होंगे और अपना सिद्ध परम पद प्रगट होगा। * ** ****
चतुर्थ-ममल स्वभाव अधिकार प्रश्न - ममल स्वभाव किसे कहते हैं? ___ समाधान- आत्मा के त्रिकाली ध्रुव स्वभाव, परम पारिणामिक भाव, सिद्ध स्वभाव, सच्चिदानंद घन, ब्रह्मस्वरूप, ऊंकारमयी, परमात्म स्वरूप को ही ममल स्वभाव कहते हैं । ममल का अर्थ है जिसमें कभी मल था नहीं,
हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं उसे ममल स्वभाव कहते हैं, जो द्रव्य का मूल ॐ स्वभाव शुद्धात्म तत्त्व है।
प्रश्न-जब आत्मा ममल स्वभाव है तो फिर यह पर्याय में अशुद्धि कर्म संयोग रागादिमल होना कैसे और क्यों है?
समाधान - आत्मा स्वभाव से सिद्ध के समान शुद्ध ममल स्वभावी ही है परंतु अनादिकाल से अपने स्वरूप की विस्मृति रूप अज्ञान से पर में एकत्व अपनत्व रूप मोह मिथ्यात्व से कर्म संयोग, पर्याय में अशुद्धि और रागादि मल होना चल रहा है और इसी कारण यह जीव, द्रव्यरूप से पुद्गल द्रव्य में एकमेक हो रहा है। जब भेदज्ञान पूर्वक निज शुद्धात्मानुभूति रूप सम्यक्दर्शन होता है, वस्तु स्वरूप का ज्ञान, स्व-पर का यथार्थ निर्णय रूप सम्यक्ज्ञान होता है तब यह अपने ममल स्वभाव की साधना से इन सबसे छूटकर परिपूर्ण शुद्ध सिद्ध मुक्त होता है।
प्रश्न- ममल स्वभाव की साधना से मुक्ति कैसे होती है?
समाधान - अनादि से जीव अपने स्वभाव को भूला हुआ अज्ञानी मिथ्यादृष्टि हो रहा है और यह जीव संज्ञा उपयोग के विभाव परिणमन होने से है। उपयोग के दो भेद हैं- १. दर्शन उपयोग, २. ज्ञान उपयोग, इसी को दृष्टि कहते हैं।
जीव, द्रव्यरूप से गुण पर्यायवान है और पुद्गल द्रव्य से मिला है, जिससे जीव, द्रव्य और गुण से शुद्ध होते हुए भी पर्याय से अशुद्ध है तथा पुद्गल द्रव्य भी स्कंधरूप और कर्म वर्गणा रूप परिणमित हो रहा है, यही निमित्त-नैमित्तिक सम्बंध संसार परिभ्रमण का कारण बना है।
जब जीव अपने सत्स्वरूप का श्रद्धान ज्ञान करता है, सम्यक्दर्शन सम्यज्ञान होता है तब वह ममल स्वभाव की साधना से इन सब संयोगों से छूटकर मुक्त होता है। जीव की दृष्टि के विभाव रूप परिणमन से कर्मों का
आश्रव बंध होता है तथा जीव की दृष्टि के स्वभावरूप परिणमन से कर्मों की २२४
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