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________________ *-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी क्रिया मोक्षमार्ग में सराहने योग्य नहीं है क्योंकि सम्यक्त्व के बिना बाह्य क्रिया का फल संसार ही है। आत्म स्वभाव के विपरीत बाह्यकर्म जो क्रियाकांड है वह क्या करेगा ? अनेक प्रकार का उपवासादि बाह्य तप भी क्या करेगा ? जो आत्म स्वभाव के विपरीत बहुत शास्त्रों को पढ़ेगा और बहुत प्रकार के चारित्र का आचरण करेगा, तो वह सब ही बालश्रुत और बालचारित्र होगा, यह अज्ञानी की क्रिया है क्योंकि ग्यारह अंग नौ पूर्व तक तो अभव्य जीव भी पढ़ता है और बाह्य मूलगुण रूप चारित्र भी पालता है परंतु अज्ञानी मिथ्यादृष्टि होने से वह मोक्ष के योग्य नहीं है । " मिथ्याज्ञान जहाँ रहता है, रहता वहाँ न सम्यक्ज्ञान । इससे मिथ्या जप तप सारे हैं केवल दुःखों की खान ॥ मान प्रतिष्ठा पाने को ही, जो जप तप आचरते हैं । धर्म नहीं वे पापों का ही, बीजारोपण करते हैं । मिथ्यादृष्टि कितनी भी शुभाशुभ क्रियायें करे वह सब कर्म बंध और संसार की ही कारण हैं । सम्यक्दृष्टि ज्ञानी कोई भी क्रिया कर्म करे अथवा न करे, तो भी उसके कर्मों की संवर पूर्वक निर्जरा होकर मोक्षमार्ग बनता है । यदि श्रमण अन्य द्रव्य का आश्रय करके अज्ञानी होता हुआ मोह करता है, राग करता है अथवा द्वेष करता है तो वह विविध कर्मों से बंधता है। यह कर्म क्या हैं और इनका स्वरूप क्या है, यह क्या प्रश्न करते हैं ? - इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - नो कम्मं पिच्छंतो, भाव कम्मं च पिच्छ विरयंतो । दव्व कम्म नहु पिच्छदि, न्यानंतर अनन्त संसारे ।। ३८९ ॥ अन्वयार्थ - (नो कम्मं पिच्छंतो) नो कर्मों को जान लो, यह शरीरादि संयोग सब नोकर्म की रचना है (भाव कम्मं च पिच्छ विरयंतो ) भाव कर्मों को जानकर उनसे छूटो, मोह, राग, द्वेष यह भावकर्म हैं (दव्व कम्म नहु पिच्छदि) द्रव्य कर्म को जानने की कोशिश ही मत करो (न्यानंतर अनन्त संसारे) यही ज्ञान स्वभाव में अंतर डालकर अनंत संसार में रुलाते हैं। विशेषार्थ - कर्म तीन प्रकार के होते हैं- द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म । यह पुद्गल कर्म वर्गणायें हैं जो जीव के विभाव रूप परिणमन से कर्मरूप २२२ गाथा- ३८९*-*-*-*-*-* बंधी हैं अर्थात् जीव की दृष्टि जब पर पर्याय की तरफ होती है तब कर्मों का आस्रव होता है और अज्ञान पूर्वक उनमें राग-द्वेष करता है तो कर्मबंध होता है, यही कर्म बंध जीव को अनंत संसार में भ्रमण कराता है, ऐसा जीव का और कर्मों का निमित्तनैमित्तिक संबंध है। जीव के भाव से कर्मों का बंध होता है और कर्मों के उदय निमित्त से जीव के भाव होते हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय, नाम, आयु, गोत्र, वेदनीय यह आठ द्रव्यकर्म कहलाते हैं, जिसके घातिया-अघातिया दो भेद हैं मोह राग-द्वेष यह भावकर्म कहलाते हैं जो अज्ञान दशा में जीव के होते हैं । शरीरादि, धन वैभव यह सब नोकर्म कहलाते हैं, जो पुद्गल परमाणु स्कंध रूप परिणमित होते हैं। यह विषय करणानुयोग का है, विशेष जानकारी के लिये उसका स्वाध्याय करना होगा। यहाँ दृष्टि का विषय है, उसकी शुद्धि करना है तो इन सब कर्मोदय शरीरादि संयोग से दृष्टि हटाना होगी; क्योंकि जीव के साथ अनादि से यह नोकर्म, भावकर्म और द्रव्यकर्म रूप क्रिया भाव और पर्याय का संबंध बना है। क्रिया शरीर में होती है, जो जड़रूप है और यह सब धन वैभव आदि संयोग पौद्गलिक जड़ ही हैं, यह सब नोकर्म की रचना है, जब तक इस पर दृष्टि रहेगी और इसमें मोह, राग-द्वेष होगा तब तक द्रव्य कर्म का बंध होगा जो अनंत संसार का कारण है। पहले इस क्रिया रूप नोकर्म से दृष्टि हटाओ और इन मोह, राग-द्वेषादि भावों को जानकर इनसे हटो, छूटो तथा द्रव्यकर्म रूप जो पर्यायी परिणमन है उसमें तो उलझो ही मत, यह सब पर पर्याय से दृष्टि हटाकर अपने ध्रुव तत्त्व शुद्धात्म स्वरूप की दृष्टि करो, ज्ञान स्वभाव में रहो तो यह संसार परिभ्रमण छूटे अन्यथा इन कर्मों की चर्चा और इनके चक्कर में तो सब ज्ञान ध्यान भूल जाओगे और यही ज्ञानांतराय अनंत संसार का कारण है । प्रश्न- परंतु इनके चक्कर से छूटने के लिये इनका स्वरूप जानना भी तो जरूरी है ? समाधान- जब भेदज्ञान तत्त्वनिर्णय द्वारा वस्तु स्वरूप को जान लिया, द्रव्यदृष्टि से द्रव्य के स्वभाव को देख लिया, फिर बार-बार इनमें उलझने से क्या लाभ है ? जो नहीं जानते जिन्हें स्व-पर का, धर्म-कर्म का यथार्थ 货到
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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